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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [ १६५ विचार को आधारभित्ति विचार निराश्रय नहीं होता। उसके अवलम्बन तीन है - ( १ ) ज्ञान (२) अर्थ (३) शब्द | ( १ ) जो विचार संकल्प-प्रधान होता है, उसे ज्ञानाश्रयी कहते हैं । (जैगम नय ज्ञानाश्रयी विचार है। (२) अर्थाश्रयी विचार वह होता है, जो अर्थ को प्रधान मानकर चले । संग्रह, व्यवहार और सूत्र - यह अर्थाश्रयी विचार है । यह अर्थ के मेद और भेद की मीमांसा करता है। । (३) शब्दाश्रयी विचार वह है, जो शब्द की मीमासा करे । (शब्द, सममिरूढ़ और एवम्भूतये तीनो शब्दाश्रयी विचार है। इनके आधार पर नयो की परिभाषा यूँ होती है :--- १) नैगम - संकल्प या कल्पना की अपेक्षा से होने वाला विचार । (२) संग्रह --- समूह की अपेक्षा से होने वाला विचार | (३) व्यवहार - व्यक्ति की " 35 99 "3 (४) ऋजुसूत्र - वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से होने वाला विचार । (५.) शब्द -- यथाकाल, यथाकारक शब्दप्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार | (६) समभिरूढ़ - शब्द की उत्पत्ति के अनुरूप शब्दप्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार । 2) एवम्भूत-व्यक्ति के कार्यानुरूप शब्दप्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार । नयविभाग..................सात दृष्टिविन्दुअश्रित ज्ञान के चार रूप बनते है । (१) सामान्य विशेष उमयात्मक के अर्थ नैगमदृष्टि I ( २ ) सामान्य या अभिन्न अर्थ... संग्रह - दृष्टि ( ३ ) विशेष या भिन्न अर्थ... व्यवहार-दृष्टि ( ४ ) वर्तमानवर्ती विशेष अर्थ · · · ऋजुसूत्र दृष्टि पहली दृष्टि के अनुसार प्रदशन्यं मेद और मेदशून्य मेद रूप भ
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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