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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१४५ सकलादेश है, इसलिए इसमें वस्तु को विभक्त करने वाले अन्य गुणो की विवक्षा नहीं होती। ___ वस्तु प्रतिपादन के दो प्रकार है-क्रम और योगपद्य। इनके सिवाय तीसरा मार्ग नही। इनका आधार है-भेद और अमेद की विवक्षा। योगपद्य-पद्धति प्रमाणवाक्य है | भेद की विवक्षा मे एक-शब्द एक काल मे एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। यह अनुपचारित पद्धति है। यह क्रम की मर्यादा में परिवर्तन नहीं ला सकती, इसलिए इसे विकलादेश कहा जाता है। विकलादेश का अर्थ है-निरंश वस्तु मे गुण-भेद से अंश की कल्पना करना। अखण्ड वस्तु मे काल आदि की दृष्टि से विभिन्न अंशो की कल्पना करना अस्वाभाविक नहीं है। ___ वस्तु विश्लेषण की प्रक्रिया का श्राधार यही बनता है। विश्लेषण की अनेक दृष्टियां है (१) व्यवहार-दृष्टि (२) निश्चय-दृष्टिन - (३) रासायनिक-दृष्टि।। (४) भौतिक विज्ञान-दृष्टि। (५) शब्द-दृष्टि। (६) अर्थ-दृष्टिक आदि-आदि। व्यवहार दृष्टि में चोटी का शरीर त्वक, रस, रक्त जैसे पदार्थों से बना होता है, रासायनिक विश्लेपण इन पदार्थों के भीतर सत्त्वमूल (Protoplasm ) कई प्रकार के अम्ल और क्षार, जल, नमक आदि बताता है। शुद्ध रासायनिक दृष्टि के अनुसार चींटी का शरीर आइजन (Orong ) नाइट्रोजन ( Nitrogen ), आक्सीजन (Oxygen ), गन्धक (Sulpher ) फासफोरस (Phosphorus) और कार्बन (Carbon ) के परमाणुओं का समूह है । भौतिक विज्ञानी से पहले तो धन और अग विद्युत्कणो का पुज और फिर शुद्ध वायु तत्त्व का भेद बताता है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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