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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [ १३३ (२ ) वस्तु न भिन्न, न अभिन्न किन्तु भैद-नमेद का समन्वय है। (३) वस्तु न एक, न अनेक किन्तु एक अनेक का समन्वय है । इन्हे बुद्धिगम्य बनाने के लिए उन्होंने अनेक वर्गीकृत अपेक्षाएं प्रस्तुत कीं । वे कुछ इस प्रकार है :--- I ( १ ) द्रव्य । ( २ ) क्षेत्र । ( ३ ) काल 1 (४) भाव - पर्याय या परिणमन । (५) भव । ( ६ ) संस्थान * । (७) गुण । (८) प्रदेश अवयव " । ( ६ ) संख्या । (१०) श्रघ । (११) विधान | ... काल और विशेष गुणकृत अविच्छिन्न नित्य काल और क्रमभावी धमकृत विच्छिन्न अनित्य होता है । क्षेत्र और मामान्य गुणकृत अविच्छिन्न भिन्न, क्षेत्र और विशेष गुणकृत विच्छिन्न भिन्न होता है । वस्तु और सामान्य गुणकृत अविच्छिन्न एक, वस्तु और विशेष गुणकृत विच्छिन्न अनेक होता है । वस्तु के विशेष गुण ( स्वतन्त्र सत्ता-स्थापक धर्म) का कभी नाश नही होता, इसलिए वह नित्य और उसके क्रम-भावी धर्म वनते-बिगड़ते रहते हैं, इसलिए वह अनित्य है । "वह अनन्त धर्मात्मक है, इसलिए उसका एक ही क्षण में एक स्वभाव से उत्पाद होता है, दूसरे स्वभाव से विनाश और तीसरे स्वभाव से स्थिति " वस्तु मे इन विरोधी धर्मों का ये अपेक्षा दृष्टियाँ वस्तु के विरोधी धमों को मिटाने के विरोध को मिटाती हैं, जो तर्कवाद मे उदभूत होता है सहज सामलस्य है । लिए नहीं है । ये उम }
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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