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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [ १२५ - वस्तु के विषय सात है, इसलिए सात प्रकार के संदेह, सात प्रकार के संदेह है इसलिए सात प्रकार की जिज्ञासा, सात प्रकार की जिज्ञासा से सात प्रकार के पयनुयोग, सात प्रकार के पर्यनुयोग से सात प्रकार के विकल्प बनते हैं । मिथ्या दृष्टि "आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तियंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥" श्राग्रह सव में होता है किन्तु दूसरे के आग्रह का उचित मूल्य अांक सके, वह आग्रही नहीं होता। अनेकान्त सम्यग्-दृष्टि है। सापेक्ष एकान्त भी सम्यग्दृष्टि है। . निरपेक्ष एकान्त-दृष्टि मिथ्या दृष्टि है। दृष्टि प्रमाद या भूल से मिथ्या बनती है। प्रमाद अनेक प्रकार का होता है । । अज्ञान प्रमाद है-अनजान में आदमी बड़े से बड़े अन्याय का समर्थन कर बैठता है। अनामिग्रहिक मिथ्यात्व में असत्य के प्रति आग्रह नही होता फिर भी अज्ञानवश असत्य के प्रति सत्य की श्रद्धा होती है, इसलिए वह मिथ्या दृष्टि है और इसीलिए अज्ञान की सबसे बड़ा पाप माना गया है। अज्ञान क्रोध आदि पापो से बड़ा पाप है और इसलिए है कि उससे ढका हुआ मनुष्य हित-अहित का भेद मी नहीं समझ सकता।" अज्ञान-दशा में होने वाली भूल भूल नहीं, यह जैन दर्शन नहीं मानता। मिथ्या ज्ञान से होने वाली भूलें साफ हैं। ज्ञान मिथ्या होगा तो ज्ञेय का यथार्थ वोध नहीं होगा। वर्शन की भाषा में यह विपर्यय या विपरीत ज्ञान है। वस्तु का स्वरूप अनेकान्त है, उसे एकान्त समझना विपर्यय है। संशय भी प्रमाद है। अनिश्चित ज्ञान से वस्तु वैसे नही जानी जा सकती जैसे वह है। इसलिए यह भी सम्यग्दृष्टि बनने मे बाधक है। जिज्ञमा और संशय एक नही है ५० । भाषा सम्बन्धी मूले ___ एकान्त भापा, निरपेक्ष एक धर्म को अखण्ड वस्तु कहने वाली भाषा दोपपूर्ण है। निश्चयकारिणी भापा, जैसे-अनुक काम करूँगा, आगे वह कॉम
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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