SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा [१११ भगवान् महावीर का युग दर्शन-प्रणयन का युग था। आत्मा, परलोक, स्वर्ग, मोक्ष है या नहीं? इन प्रश्नों की गूज थी। सामान्य विषय भी जीखोल कर चर्चे जाते थे । प्रत्येक दर्शन-प्रणेता की अपने-अपने ढंग की उत्तरशैली थी। महात्मा बुद्ध मध्यम प्रतिपदावाद या विभज्यवाद के द्वारा समझाते । थे। संजयवेलडीपुत्त विक्षेपवाद या अनिश्चयवाद की भाषा में बोलते मगवान् महावीर का प्रतिपादन स्यावाद के सहारे होता। इन्हे एक दूसरे का वीज मानना आग्रह से अधिक और कुछ नही लगता। संजय की उत्तर प्रणाली को अनेकान्तवादी कहना अनेकान्तवाद के प्रति घोर अन्याय है। भगवान् महावीर ने यह कभी नहीं कहा कि मैं समझता होऊ कि अमुक है तो आपको बतलाऊं। वे निर्णय की भाषा में बोलते । उसके अनेकान्त मे अनन्त धर्मों को परखने वाली अनन्त दृष्टिगा और अनन्त वाणी के विकल्प हैं । किन्तु याद रखिए, वे सब निर्णायक हैं । संजय के भ्रमवाद की भाति लोगों को भूलमुलैया मे डालने वाले नहीं है। अनन्त धर्मों के "लिए अनन्त दृष्टिकोणो और कुछ भी निर्णय न करने वाले दृष्टिकोणी को एक कोटि मे रखने का आग्रह धूप छांह को मिलाने जैसा है। इसे "हां और "नहीं" का भेद नही कहा जा सकता। यह मौलिक मेद है। 'अस्तीति न मणामि'-'है' नही कह सकता और "नास्तीति च न मणामि"-"नहीं है" नहीं कह सकता। संजय की इस संशयशीलता के विरुद्ध अनेकान्त कहता है"स्यात् अस्ति-अमुक अपेक्षा से यह है ही, "स्यात् नास्ति'-अमुक अपेक्षा से यह नहीं ही है। 'घट यहाँ हो सकता है-यह स्यादवाद की उत्तर-पद्धति नहीं है। उसके अनुसार 'घट है-अपनी अपेक्षा से निश्चित है' यह रूप होगा+ अहिंसा-विकास में अनेकान्त दृष्टि का योग ___ जैन धर्म का नाम याद आते ही अहिंसा साकार हो आँखो के सामने आ जाती है। अहिंसा को आर्थात्मा जैन शब्द के साथ इस प्रकार घुली मिली हुई है कि इनका विभाजन नहीं किया जा सकता । लोक-भाषा में यही प्रचलित है कि जैन धर्म यानी अहिंसा, अहिंसा यानी जैन धर्म । धर्म मात्र अहिंसाको आगे किये चलते हैं। कोई भी धर्म ऐसा नहीं
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy