SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - १०६] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा समीक्षा)...जैन दर्शन ध्रौव्य और उत्पाद-व्यय को पृथक-पृथक सत्य नही मानता। सत्य के दो रूप नहीं हैं । पदार्थ की उत्पाद-व्यय-प्रौव्यात्मक सत्ता ही... सत्य है । यह दो सत्यो का योग नही, किन्तु एक ही. सत्य के अनेक अभिन्न रूप हैं। तात्पर्य यह है कि न भेद सत्य है और न अभेद सत्य है-मेदामेद सत्य है | द्रव्य के विना पर्याय नहीं मिलते, पर्याय के विना द्रव्य नहीं मिलता, जात्यन्तर मिलता है-द्रव्य-पर्यायात्मक पदार्थ मिलता है, इसलिए भेदअन्वित अभेद मी सत्य है और अभेद-अन्वित भेद भी सत्य है। एक शब्द में मेदाभेद सत्य है । ___ सत्य की मीमांसा में पूर्ण या अपूर्ण यह भेद नही होता। यह मेद हमारी प्रतिपादन पद्धति का है। सत्य स्वरूप-दृष्टि से अविभाज्य है। ध्रौव्य से उत्पाद-व्यय वथा उत्पाद-व्यय से धौव्य कभी पृथक् नहीं हो सकता। अनन्त धर्मों की एकरूपता नहीं, इस दृष्टि से कथंचित् विभाज्य भी है। इसी स्थिति के कारण वह शब्द या वर्णन का विषय बनता है। यही सापेक्ष सत्यता है । ( पदार्थ निरपेक्ष सत्य है। उसके लिए सापेक्ष सत्यता की कोई कल्पना नही की जा सकती । सापेक्ष सत्यता, एक पदार्थ में अनेक विरोधी धर्मों की स्थिति से हमारे ज्ञान में जो विरोध की छाया पड़ती है उसको मिटाने के लिए है। जैन दर्शन जितना अनेकवादी है, उतना ही एकवादी है। वह सर्वथा एकवादी या अनेकवादी नहीं है । वेदान्त जैसे व्यवहार में अनेकवादी और परमार्थ मे एकवादी है, वैसे जैन एक या अकनेवादी नहीं है । जैन दृष्टि के अनुसार एकता और अनेकता दोनो वास्तविक हैं। अनन्त धर्मों की अपृथक्-भाव सत्ता समन्वित सत्य है। यह सत्य की एकता है। ऐसे सत्य अनन्त हैं। उनकी स्वतत्र सत्ता है । वे किसी एक सामान्य सत्य के अंश या प्रतिबिम्ब नहीं हैं । वेदान्त की विश्व-विषयक कल्पना की जैन की एक-पदार्थ-विषयक कल्पना से तुलना होती है। दूसरे शब्दो मे यों कहना चाहिए कि जैन दर्शन एक पदार्थ के बारे मे वैसे एकवादी है जैसे वेदान्त विश्व के बारे मे। अनन्त सत्यों का समीकरण या वर्गीकरण एक में या दो मे किया जा सकता है, किन्तु वे एक नहीं किये जा सकते। अस्तित्व ( है ) की दृष्टि से समूचा विश्व एक और स्वरूप की दृष्टि से समूचा विश्व दो (चेतन, अचेतन) रूप है। यह निश्चित
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy