SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में प्रमाण मौमासो [904 '-जानु स्थान मिला है, सात् मनित्य है। पन्त न्यान् सामान्य है, स्यात् विशेष है। , -वन्तु स्यात् सत् है, स्यात् असत् है। -Y-वासात् वक्तव्य है, न्यात् प्रवक्तव्य है। उन चर्चा में कहीं भी "स्यात्" शब्द संदेह के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ. है। फिर भी शांकरभाव से लेकर आज तक के बालोचक साहित्य में याबाट को निर्धान्ति प शान या संशयवाद कहा गया है। शेवगाचार्य की युक्ति के अनुसार ---"न्यादवाद की पद्धति से जैन सम्मत गात पदार्थों की संहा और स्वरूप मा निश्चय नहीं हो सकता ११ वे वैसे ही हैं या वेसे नही है, यह निश्चय हुए बिना उनकी, प्रामाणिकता चली जाती है। __ गज के परिवर्तित युग में यह बालोचना मुल-स्पी नही मानी जाती, तब कई व्यक्ति एक नई दिशा तुझाते हैं। जैगा कि डा० एस० के० वेलवालकर एन. ए., पी. एच. डी. ने लिखा है-शंकराचार्य ने अपनी व्याख्या में पुगतन जेन-दृष्टि का प्रतिपादन किया है, और इसलिए उनका प्रतिपादन जान बृम्भकर मिथ्यानरुपण नहीं कहा जा सकता । जैनधर्म का जैनेतर साहित्य में सबसे प्राचीन उल्लेख वादरायण के वेदान्त सूत्र में मिलता है, जिस पर शकराचार्य की टीका है। हम इस बात को स्वीकार करने में कोई कारण नजर नहीं आता कि जैनधर्म की पुरातन वात को यह द्योतित करता है। यह जति जैनधर्म की सबसे दुर्बल और सदोप रही है हाँ, आगामी काल में स्यादवाद का दूसरा स्प हो गया, जो हमारे आलोचको के समक्ष है और अव उम पर विशेष विचार करने की किसी को आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। (ममीक्षा) •अगर हमारा झुकाव व्यक्तिवाद की ओर नही है तो हमें यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि शकराचार्य ने स्यावाद का जिस रूप में खण्डन किया है, उमका वह रूप जैन दर्शन में कभी भी नहीं. रहा है । बादरायण के "नैकस्मिन्नसम्भवात्” सूत्र में जैन दर्शन द्वारा एक पदार्थ मे । अनेक विरोधी धमाँ के स्वीकार की बात मिलती है, संशय की नहीं। फिर भी शंकराचार्य ने स्यादवाद का संशयवाद की भित्ति पर निराकरण किया, वह
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy