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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा [१५ पर्याय-नय की मुख्यता और द्रव्य-नय की अमुख्यता से गुणो की भेदवृत्ति वनती है। उससे स्यादवाद-विकलादेश या नय-वाक्य बनता है। वाक्य दो प्रकार के होते हैं-सकलादेश और विकलादेश । अनन्त धर्म वाली वस्तु के अखण्ड रूप का प्रतिपादन करने वाला वाक्य सकलादेश होता है। वाक्य में यह शक्ति अभेद-वृत्ति की मुख्यता और अभेद का उपचार-इन दो कारणो से आती है। अनन्त धमों को अभिन्न बनाने वाले ८ कारण हैं(१) काल (५) उपकार (२) आत्म-रूप (६) गुणी-देश (३) अर्थ-आधार (७) संसर्ग (४) सम्बन्ध (८) शब्द वस्तु और गुण-धर्मों के सम्बन्ध की जानकारी के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। हम वस्तु के अनन्त गुणो को एक-एक कर वताए और फिर उन्हे एक धागे में पिरोएं, यह हमारा अनन्त जीवन हो तब बनने की बात है। बिखेरने के बाद समेटने की वात ठीक बैठती नहीं, इसलिए एक ऐसा द्वार खोलें या एक ऐसी प्रकाश-रेखा डालें, जिसमें से या जिसके द्वारा समूची वस्तु दीख जाय। यह युक्ति हमें भगवान् महावीर ने सुझाई। वह है, उनकी वाणी में सिय' शब्द । उसी का संस्कृत अनुवाद होता है ‘स्यात् । कोई एक धर्म 'स्यात्' से जुड़ता है। और वह वाकी के सब धर्मों को अपने में मिला लेता है। 'स्यात् जीव हैंयहाँ हम 'है' इसके द्वारा जीव की अस्तिता बताते हैं और है' स्यात् से जुड़कर आया है, इसलिए यह अखण्ड रूप में नही, किन्तु अखण्ड बनकर आया है। एक धर्म में अनेक धर्मों की अभिन्नता वास्तविक नही होती, इसलिए यह अमेद एक धर्म की मुख्यता या उपचार से होता है। (१) जिस समय वस्तु में 'ह' है, उस समय अन्य धर्म मी हैं, इसलिए काल की दृष्टि से 'है' और बाकी के सव धर्म अमिन्न हैं। (२)'है' धर्म जैसे वस्तु का आत्मरूप है, वैसे अन्य धर्म भी उसके आत्मरूप हैं। इस आत्मरूप की दृष्टि से प्रतिपाद्य धर्म का अप्रतिपाद्य धर्मों से अमेद है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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