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________________ स्यादूवाद "न चाsसियावायं वियागरेजा" .. सू० १-१४- १६ स्यादवाद पद्धति से नही बोलना चाहिए । "विभज्जवायं च वियागरेज्जा". ...... • सू० १-१३ विभज्यवाद की पद्धति से बोलना चाहिए। .... “सम्पूर्णार्थ विनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते” -न्याया० ८-३० " श्राद्रकुमार ने कहा - गोशालक । जो श्रमण और ब्राह्मण ( उन्हीं ) के दर्शन के अनुसार चलने से मुक्ति होगी, दूसरे दर्शनो के अनुसार चलने से मुक्ति नही होगी - यूं कहते है - इस एकान्त दृष्टि की मैं निन्दा करता हूँ । मैं किसी व्यक्ति की निन्दा नही करता । " -- जैन दर्शन के चिन्तन की शैली अनेकान्त दृष्टि है और प्रतिपादन की शैली स्यादवाद / जानना ज्ञान का काम है, बोलना वाणी का ( ज्ञान की शक्ति अपरिमित हैं, वाणी की परिमित । ) ज्ञेय, अनन्त, ज्ञान अनन्त, किन्तु वाणी अनन्त नही, इसलिए नही कि एक क्षण में अनन्त ज्ञान अनन्त ज्ञेयो को जान सकता है, किन्तु वाणी के द्वारा कह नहीं सकता । एक तत्त्व - ( परमार्थ सत्य ) अभिन्न अनन्त सत्यों की समष्टि होता है । एक शब्द एक क्षण में एक सत्य को बता सकता है। इसलिए कहा है" वस्तु के दो रूप होते हैं :-- - (१) अनभिलाग्य -- अवाच्य (२) अभिलाप्य - वाच्य अनमिलाप्य (अप्रज्ञापनीय ) का अनन्तवा भाग मिलाय, अभिलाप्य का अनन्त वा भाग सूत्र प्रथित आगम होता है । प्रज्ञापनीय भावो का निरूपण वागयोग के द्वारा होता है । वह श्रोता- के भाव श्रुत्त का कारण बनता है । इसलिए द्रव्यश्रुत ( ज्ञान का साधन ) होता है । यहाँ एक समस्या बनती है - हम जानें कुछ और ही और कहे कुछ ' · "
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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