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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा 15७ चले । यह सबके लिए आवश्यक मार्ग है। अविरति मनुष्य को मूढ़ बनाती है, यह केवल अवरति नहीं है । विरति केवल मनुष्य मात्र के लिए सरल नहीं होती, यह केवल विरति नहीं है। यह अविरति और विरति का योग है। इसमे न तो वस्तु-स्थिति का अपलाप है और न मनुष्य की वृत्तियो का पूर्ण अनियंत्रण। इसमें अपनी विवशता की स्वीकृति और स्ववशता की ओर गति दोनों हैं। निश्चय-दृष्टि यह है-हिंसा से आत्मा का पतन होता है, इसलिए वह अकरणीय है। व्यवहार-दृष्टि यह है-सभी प्राणियो को अपनी-अपनी आयु प्रिय है । सुख अनुकूल है । दुःख प्रतिकूल है । वध सब को अप्रिय है। जीना सव को प्रिय है । सब जीव लम्बे जीवन की कामना करते हैं। सभी को जीवन मिय लगता है । यह सब समझ कर किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। किसी जीव को त्रास नहीं पहुंचाना चाहिए | किसी के प्रति बैर और विरोध भाव नही रखना चाहिए २७ । सव जीवो के प्रति मैत्रीभाव रखना चाहिए। हे पुरुप ! जिये तू मारने की इच्छा करता है,२९ विचार कर वह तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है; जिसपर हुमत करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे दुःख देने का विचार करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे अपने वश करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है; जिसके मारण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है। मृपावाद-विरति-दूसरा महाव्रत है। इसका अर्थ है असत्य-भाषण से विरत होना। अदत्तादान विरति तीसरा महावत है इसका अर्थ है विना दी हुई वस्तु लेने से विरत होना । मैथुन-विरति चौथा महाव्रत है इसका अर्थ है भोगविरति । पाँचवॉ महाव्रत अपरिग्रह है। इसका अर्थ है परिग्रह का त्याग । मुनि मृपावाद आदि का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है, इसलिए स्वीकृति निम्न शब्दो में करता है।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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