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________________ ७६] जैन दर्शन में आचार मीमांसा . अहिंसा का यह व्यापक रूप है। इसकी परिभाषा है जो संवर और सत्प्रवृत्ति है वह अहिंसा है। अहिंसा का दूसरा रूप है -प्राणातिपात-विरति ।। भगवान् ने कहा जीवमात्र को मत मारो, मत सताओ, आधि-व्याधि मत पैदा करो, कष्ट मत दो, अधीन मत बनाओ, दास मत बनाओ यही ध्रुव-धर्म है, यही शाश्वत सत्य है। इसकी परिभाषा है-मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित अनुमति से आक्रोश, बन्ध और बध का त्याग। दूसरे महाव्रतों की रचना का मूल यही परिभाषा है। इसमें मृषावाद, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का समावेश नहीं होता। अहिंसा सत्य और ब्रह्मचर्य जितने व्यापक शब्द हैं, उतने व्यापक प्राणातिपात-विरति, मृषावाद-विरति और मैथुनविरति नहीं है। प्राणातिपात-विरति भी अहिंसा है। स्वरूप की दृष्टि से अहिंसा एक है । हिंसा भी एक है। कारण की दृष्टि से हिंसा के दो प्रकार बनते हैं—(१) अर्थ हिंसा-आवश्यकतावश की जाने वाली हिंसा और (२) अनर्थ हिंसा-अन्-अावश्यक हिंसा। मुनि सर्व हिंसा का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है। वह अहिंसा महाव्रत को इन शब्दों में स्वीकार करता है-"भत्ते । मैं उपस्थित हुआ हूँ पहले महाव्रत प्राणातिपात से विरत होने के लिए । भंते ! मैं सब प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूक्ष्म और बादर, त्रस और स्थावर जीवों का अतिपात मनसा, वाचा, कर्मणा, मैं स्वयं न करूंगा-दूसरो से न कराऊँगा और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा। मैं यावजीवन के लिए इस प्राणातिपात-विरति महाव्रत को स्वीकार करता गृहस्थ अर्थ-हिंसा छोड़ने में क्षम नहीं होता, वह अनर्थ-हिंसा का त्याग और अर्थ-हिंसा का परिमाण करता है। इसलिए उसका अहिंसा-व्रत स्थूलप्राणातिपात-विरति कहलाता है। जैन आचार्यों ने गृहस्थ के उत्तरदायित्वों और विवशताओं को जानते हुए कहा-"आरम्भी-कृषि, व्यापार सम्बन्धी और विरोधी प्रत्याक्रमण कालीन हिंसा से न बच सको तो संकल्पी-आक्रमणात्मक और अप्रायोजनिक हिंसा से अवश्य बचो।" इस मध्यम-मार्ग पर अनेक लोग
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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