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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [६३ परिस्थिति की मर्यादाएँ, वह जो है उससे भी उसे और अधिक बना देती है। इसीलिए पारमार्थिक जगत् मे जो व्यक्तिवादी होता है, वह व्यावहारिक जगत् मे समष्टिवादी वन जाता है। निश्चय दृष्टि के अनुसार समूह आरोपवाद या कल्पनावाद है। ज्ञान वैयक्तिक होता है । अनुभूति वैयक्तिक होती है। संज्ञा और प्रज्ञा वैयक्तिक होती है। जन्म-मृत्यु वैयक्तिक है। एक का किया हुअा कर्म दूसरा नहीं भोगता । सुख-दुःख का सवेदन भी वैयक्तिक है ७५ सामूहिक अनुभूतियाँ कल्पित होती है। वे सहजतया जीवन में उतर नही आती। जिस समूह-परिवार, समाज या राष्ट्र से सम्बन्धो की कल्पना जुड़ जाती हैं, उसी की स्थिति का मन पर प्रभाव होता है। यह मान्यता मात्र है। उनकी स्थिति ज्ञात होती है, तब मन उससे प्रभावित होता है । अज्ञात दशा में उनपर कुछ भी बीते मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। शत्रु जैसे मान्यता की वस्तु है, वैसे मित्र भी। शत्रु की हानि से प्रमोद और मित्र की हानि से दुःख, शत्रु के लाभ से दुःख और मित्र के लाभ से प्रमोद जो होता है, वह मान्यता से आगे कुछ भी नहीं है । व्यक्ति स्वयं अपना शत्रु है और स्वयं अपना मित्र ७६ | निश्चय-दृष्टि उपादान प्रवान है। उसमें पदार्थ के शुद्ध रूप का ही प्ररूपण होता है । व्यवहार की दृष्टि स्थूल है । इसलिए वह पदार्थ के सभी पहलुओ को छूता है। निमित्त को भी पदार्थ से अभिन्न मान लेता है। समूह गत एकता का यही वीज है। इसके अनुसार क्रिया-प्रतिक्रिया सामाजिक होती है। समाज से अलग रहकर कोई व्यक्ति जी नही सकता । समाज के प्रति जो व्यक्ति अनुत्तरदायी होता है, वह अपने कर्तव्यो को नहीं निभा सकता। इसमें परिवार, समाज और राष्ट्र के साथ जुड़ने की, संवेदनशीलता की वात होती है । जैन-दर्शन का मर्म नही जानने वाले इसे नितान्त व्यक्तिवादी बताते है । पर यह सर्वथा सच नही है। वह अध्यात्म के क्षेत्र में व्यक्ति के व्यक्तिवादी होने का समर्थन करता है किन्तु व्यवहारिक क्षेत्र में समष्टिवाद की मर्यादाश्रो का निषेध नहीं करता। निश्चय-दृष्टि से वह कर्तृत्व-भोवतृत्व को आत्म
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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