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________________ ६२] जैन दर्शन में आचार मीमांसा नाश होने पर फिर उसका बन्ध नही होता। कर्म का लेप सकर्म के होता है। अकर्म कर्म से लिप्त नही होता। ईश्वर ___ जैन ईश्वरवादी नही-बहुतो की ऐसी धारणा है। बात ऐसी नहीं है। जैन दर्शन ईश्वरवादी अवश्य है, ईश्वरकतृत्ववादी नही । ईश्वर का अस्वीकार अपने पूर्ण-विकास-चरम लक्ष्य (मोक्ष) का अस्वीकार है। मोक्ष का अस्वीकार अपनी पवित्रता (धर्म) का अस्वीकार है। अपनी पवित्रता का अस्वीकार अपने आप (आत्मा) का अस्वीकार है । आत्मा साधक है। धर्म साधन है। ईश्वर साध्य है । प्रत्येक मुक्त अात्मा ईश्वर हैं । मुक्त आत्माएँ अनन्त हैं, इसलिए ईश्वर अनन्त हैं। एक ईश्वर कर्ता और महान्, दूसरी मुक्तात्माएँ अकर्ता और इसलिए अमहान् की वे उस महान् ईश्वर में लीन हो जाती हैं—यह स्वरूप और कार्य की भिन्नता निरुपाधिक दशा में हो नहीं सकती। मुक्त अात्माओ की स्वतन्त्र सत्ता को इसलिए अस्वीकार करने वाले कि स्वतन्त्र सत्ता मानने पर मोक्ष में भी भेद रह जाता है, एक निरूपाधिक सत्ता को अपने में विलीन करने वाली और दूसरी निरूपाधिक सत्ता को उसमें विलीन होने वाली मानते हैं—क्या यह निर्-हेतुक भेद नही ? मुक्त दशा में समान विकास-शील प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार वस्तु-स्थिति का स्वीकार है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त आनन्द---यह मुक्त श्रात्मा का स्वरूप या ऐश्वर्य है। यह सबमें समान होता है। आत्मा सोपाधिक ( शरीर और कर्म की उपाधि सहित) होती है, तब उसमें पर भाव का कतृत्व होता है। मुक्त-दशा निरूपाधिक है। उसमें केवल स्वभाव-रमण होता है, पर-भाव-कतृत्व नहीं। इसलिए ईश्वर में कत्तु त्व का आरोप करना उचित नहीं। व्यक्तिवाद और समष्टिवाद __प्रत्येक व्यक्ति जीवन के प्रारम्भ में अवादी होता है। किन्तु आलोचना के क्षेत्र में वह अाता है त्योही वाद उसके पीछे लग जाते हैं। वास्तव में वह वही है, जो शक्तियां उसका अस्तित्व बनाए हुए हैं। किन्तु देश, काल और
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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