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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा परति (अनिवृत्ति या अविरति ) है । ज्ञान का क्रम आगे बढ़ा। व्यथा का मूल कारण क्रिया समूह जान लिया गया। (२) प्राधिकरणिकी—यह अधिकरण-शस्त्र के योग से होने वाली प्रवृत्ति है। इसके दो रूप हैं-(१) शस्त्र-निर्माण (२) शस्त्र-संयोग । शस्त्र का अर्थ केवल आयुध ही नही है। जीव-बध का जो साधन है, वही शस्त्र है। (३) प्राद्वेषकी :-प्रद्वेष जीव और अजीव दोनो पर हो सकता है। इस लिए इसके दो रूप बनते हैं—(१) जीव-प्राद्वेषिकी (२) अजीव-प्राद्वेषिकी । (४) परिताप (असुख की उदीरणा) स्वयं देना और दूसरो से दिलाना'पारितापनिकी' है। (५) प्राण का अतिपात (वियोग) स्वयं करना और दूसरो से करवाना 'प्राणातिपातिकी' है। इस प्रकरण में एक महत्त्वपूर्ण गवेषणा हुई-वह है प्राणातिपात से हिंसा के पार्थक्य का ज्ञान । परितापन और प्राणातिपात-ये दोनो जीव से संबंधित हैं। हिंसा का संबंध जीव और अजीव दोनो से हैं। यही कारण है कि जैसे प्राद्वेषिकी का जीव और अजीव दोनो के साथ संबंध दरसाया है, वैसे इनका नही। द्वेष अजीव के प्रति भी हो सकता है किन्तु अजीव के परिताप और प्राणातिपात ये नही किये जा सकते। प्राणातिपात का विषय छह जीवनिकाय है ५ ॥ __ प्राणातिपात हिंसा है किन्तु हिंसा उसके अतिरिक्त भी है। असत्य वचन, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह भी हिंसा है। इन सब में प्राणातिपात का नियम नहीं है। विषय मीमांसा के अनुसार-मृषावाद का विषय सब द्रव्य है ५४ । अदत्तादान का विषय ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्य है ५५ । आदान ग्रहण ( धारण ) योग्य वस्तु का ही हो सकता है, शेष का नहीं। ब्रह्मचर्य का विषय-रूप और रूप के सहकारी द्रव्य है ५६ | परिग्रह का विषय-'सब द्रव्य' हैं ५७ । परिग्रह का अर्थ है मूर्छा या ममत्व । वह अति लोभ के कारण सर्व-वस्तु विषयक हो सकता है। ये पांच आस्रव हैं। इनके परित्याग का अर्थ है 'अहिंसा'। वह महाव्रत है। (१) प्राणातिपात-विरमण (२) मृपावाद-विरमण (३) अदत्तादान-विरमण
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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