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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [५७ साधना के पहले चरण में ही सारी क्रियाओ का त्याग शक्य नहीं है । मुमुत्तु भी साधना की पूर्व भूमिकाओं में क्रिया-प्रवृत्त रहता है। किन्तु उसका लक्ष्य प्रक्रिया ही होता है, इसलिए वह कुछ भी न बोले, अगर वोलना आवश्यक हो तो वह भापा-समिति (दोष-रहित पद्धति) से बोले ४७। वह चिन्तन न करे, अगर उसके बिना न रह सके तो आत्महित की बात ही सोचे-धर्म और शुक्ल ध्यान ही ध्याए । वह कुछ भी न करे, अगर किये विना न रह सके तो वही करे जो साध्य से दूर न ले जाए। यह क्रिया-शोधन का प्रकरण है। इस चिन्तन ने संयम, चरित्र, प्रत्याख्यान आदि साधनो को जन्म दिया और उनका विकास किया। प्रत्याख्यातव्य (त्यक्तव्य ) क्या है ? इस अन्वेपण का नवनीत रहा"क्रियावाद' । उसकी रूप रेखा यूं है-क्रिया का अर्थ है कर्मवन्ध४०-कारक कार्य अथवा अप्रत्याख्यानजन्य (प्रत्याख्यान नही किया हुआ है उस सूक्ष्म वृत्ति से होने वाला) कर्मवन्ध ४। वे क्रियाएं पांच हैं-(१) कायिकी ( २ ) प्राधिकरणिकी ( ३ ) प्राद्वे पिकी ( ४) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातिकी ५०। (१) कायिकी (शरीर से होने वाली क्रिया) दो प्रकार की है(क) अनुपरता (ख) दुष्प्रयुक्ता ५१। शरीर की दुष्प्रवृत्ति सतत नहीं होती। निरन्तर जीवो को मारने वाला वधक शायद ही मिले । निरन्तर असत्य बोलने वाला और बुरा मन वर्ताने वाला भी नहीं मिलेगा किन्तु उनकी अनुपरति (अनिवृत्ति) नैरंतरिक होती है । दुष्प्रयोग अव्यक्त अनुपरति का ही व्यक्त परिणाम है। अनुपरति जागरण और निद्रा दोनो दशाओ में समान रूप होती है। इसे समझे विना आत्म-साधना का लक्ष्य दूरवर्ती रहता है। इसी को लक्ष्य कर भगवान् महावीर ने कहा है'अविरत जागता हुआ भी सोता है । विरत सोता हुआ भी जागता है ५२। __ मनुष्य शारीरिक और मानसिक व्यथा से सार्वदिक मुक्ति पाने चला, तव उसे पहले पहल दुष्प्रवृत्ति छोड़ने की बात सूझी। आगे जाने की बात संभवतः उसने नहीं सोची। किन्तु अन्वेषण की गति अवाध होती है। शोध करते-करते उसने जाना कि व्यथा का मूल दुष्प्रवृत्ति नहीं किन्तु उसकी अनु
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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