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________________ ३२ ] जैन दर्शन में आचार मीमांसा ( ४ ) वाणी में ज्ञान का प्रामाणिक प्रतिविम्ब - विचारो 'या. लक्ष्यो की अभिव्यक्ति का यथार्थ साधन ४३ | (५) ज्ञेय ( संवेद्य या विपय ) और ज्ञातृ ( संवित् या विषयी ) के समकालीन अस्तित्व, स्वतन्त्र अस्तित्व तथा पारस्परिक सम्बन्ध के कारण उनका विषयविपयीभाव | चार सिद्धान्त ( १ ) पदार्थमात्र - परिवर्तनशील है 1 ( २ ) सत् का सर्वथा नाश और सर्वथा असत् का उत्पाद नही होता ( ३ ) जीव और पुद्गल में गति-शक्ति होती है । ( ४ ) व्यवस्था वस्तु का मूल भूत स्वभाव है । इनकी जड़वाद के चार सिद्धान्तों से तुलना कीजिए । ( क ) ज्ञाता और ज्ञेय नित्य परिवर्तनशील हैं । ( ख ) सद् वस्तु का सम्पूर्ण नाश नहीं होता - पूर्ण अभाव में से सद् वस्तु उत्पन्न नहीं होती । ( ग ) प्रत्येक वस्तु में स्वभाव - सिद्ध गति-शक्ति किवा परिवर्तनशक्ति अवश्य रहती है । (घ) रचना, योजना, व्यवस्था, नियमबद्धता अथवा सुसंगति वस्तु का मूलभूत स्वभाव है ४४ ४४ | सत्य क्या है भगवान् ने कहा—-सत्य वही है, जो जिन प्रवेदित है -- प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा निरूपित है ४५ | यह यथार्थवाट है, सत्य का निरूपण है किन्तु यथार्थता नही है- - सत्य नही है । जो सत् है, वही सत्य है -जो है वही सत्य है, जो नहीं है वह सत्य नही है। यह अस्तित्व ——- सत्य, वस्तु - सत्य, स्वरूप सत्य या ज्ञेय सत्य है । जिस वस्तु का जो सहज शुद्ध रूप है, वह सत्य है । परमाणु परमाणु रूप में सत्य है । आत्मा आत्मा रूप में सत्य है । धर्म, अधर्म, आकाश भी अपने रूप में सत्य हैं। एक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला । अविभाज्य पुद्गल ---- यह परमाणु का सहज रूप सत्य है । बहुत सारे परमाणु मिलते हैं -स्कन्ध वन
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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