SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में आचार मोमांसा [ ३१ (६) लोक - मर्यादा - जितने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं, उतना क्षेत्र 'लोक' है और जितना क्षेत्र लोक है, उतने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं । (१०) लोकगति कारणाभाव - लोक के सब अन्तिम भागो में आवद्ध पार्श्व-स्पृष्ट पुद्गल हैं । लोकान्त के पुद्गल स्वभाव से ही रूखे होते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संघटित नही हो सकते । उनकी सहायता के बिना जीव अलोक में गति नहीं कर सकते । असम्भाव्य कार्य 39 ( १ ) अजीव को जीव नहीं बनाया जा सकता । ( २ ) जीव को अजीव नहीं बनाया जा सकता । (३) एक साथ दो भाषा नही बोली जा सकती । (४) अपने किए कमों के फलो को इच्छा अधीन नहीं किया जा सकता । ( ५ ) परमाणु तोड़ा नहीं जा सकता । ( ६ ) अलोक में नही जाया जा सकता | सर्वज्ञ या विशिष्ट योगी के सिवाय कोई भी व्यक्ति इन तत्त्वों का साक्षात्कार नहीं कर सकता ४० । ( १ ) धर्म ( गति तत्त्व ) ( २ ) (३) श्राकाश ( ४ ) शरीर रहित जीव (५) परमाणु ( ६ ) शब्द पारमार्थिक सत्ता धर्म ( स्थिति तत्त्व ) ( १ ) ज्ञाता का सतत अस्तित्व ४१ | ४२१ ( २ ) ज्ञेय का स्वतन्त्र अस्तित्व वस्तु-ज्ञान पर निर्भर नहीं है ४ ( ३ ) ज्ञाता और ज्ञेय में योग्य सम्बन्ध |
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy