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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा २९ यो की भी अवहेलना करने लगे। ऐसे समय में व्यावहारिक सम्यग् दर्शन की व्याख्या और विशाल वनी। आचार्य समन्त भद्र ने मद के साथ उसकी विसंगति बताते हुए कहा है-"जो धार्मिक व्यक्ति अष्टमद (१) जाति (२) कुल (३) वल (४) रूप (५) श्रुत (६) तप (७) ऐश्वर्य (८) लाभ से उन्मत्त होकर धर्मस्थ व्यक्तियों का अनादर करता है, वह अपने आत्म-धर्म का अनादर करता है । सम्यग दर्शन आदि धर्म को धर्मात्मा ही धारण करता है। जो धर्मात्मा है, वह महात्मा है। धार्मिक के विना धर्म नहीं होता। सम्यग दर्शन की सम्पदा जिसे मिली है, वह भंगी भी देव है। तीर्थकरो ने उसे देव माना है। राख से ढकी हुई आग का तेज तिमिर नहीं बनता, वह ज्योतिपुञ्ज ही रहता है । आचार्य भिक्षु ने कहा है :__ वे व्यक्ति विरले ही होते हैं, जिनके घट में सम्यकत्व रम रहा हो। जिस के हृदय में सम्यकत्व-सूर्य का उदय होता है, वह प्रकाश से भर जाता है, उसका अन्धकार चला जाता है। सभी खानो में हीरे नही मिलते, सर्वत्र चन्दन नहीं होता, रत्न-राशि सर्वत्र नहीं मिलती, सभी सर्प 'मणिधर' नही होते, सभी लब्धि (विशेष शक्ति) के धारक नही होते, वन्धन-मुक्त सभी नही होते, सभी सिंह 'केसरी' नहीं होते, सभी साधु 'साधु' नहीं होते, उसी प्रकार सभी जीव सम्यक्त्वी नहीं होते। नव-तत्त्व के सही श्रद्धान से मिथ्यात्त्व (१० मिथ्यात्व) का नाश होता है । यही सम्यकत्व का प्रवेश-द्वार है । सम्यकत्व के आजाने पर श्रावक-धर्म या साधु-धर्म का पालन सहज हो जाता है, कर्म-वन्धन टूटने लगते हैं और वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । तथ्य (भावी ध्रुव सत्यों) की अन्वेषणा, प्राप्ति और प्रतीति जो है, वह सम्बकत्व है, यह व्यावहारिक सम्यग दर्शन की परिभापा है। इसका आधार तत्वो की सम्यग्-श्रद्धा है । दर्शन-पुरुप की तत्त्व-श्रद्धा अपने आप सम्यक हो जाती है । तत्त्व श्रद्धा का विपर्यय आग्रह और अभिनिवेश से होता है | अभिनिवेश का हेनु तीव्र कपाय है । दर्शन-पुरुप का कपाय मन्द हो जाता है, उसमें आग्रह का भाव नहीं रहता। वह सत्य को सरल और सहज भाव से पकड़ लेता है ।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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