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________________ २९] जैन दर्शन में आचार मीमांसा सम्यग्-दर्शन की व्यावहारिक पहिचान ___ सम्यग् दर्शन आध्यात्मिक शुद्धि है। वह बुद्धिगम्य वस्तु नही है। फिर भी उसकी पहिचान के कुछ व्यावहारिक लक्षण बतलाए हैं । सम्यक्त्व श्रद्धा के तीन लक्षण ३६ :(१) परमार्थ संस्तव...परम सत्य के अन्वेषण की रुचि । (२) सुदृढ़ परमार्थ सेवन... परम सत्य के उपासक का संसर्ग या मिले हुए सत्य का आचरण । (३) कुदर्शन वर्जना-कुमार्ग से दूर रहने की दृढ़ आस्था । सत्यान्वेषी या सत्यशील और असत्यविरत जो हो तो जाना सकता है कि वह सम्यग् दर्शन-पुरुष है। पांच लक्षण (१) शम.. कषाय उपशमन (२) सवेग...मोक्ष की अभिलाषा (३) निर्वेद.. संसार से विरक्ति (४) अनुकम्पा.. प्राणीमात्र के प्रति कृपाभाव, सर्वभूत मैत्री आत्मौपम्यभाव । (५) आस्तिक्य...आत्मा में निष्ठा । सम्यक् दर्शन का फल गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है ? भगवान्-गौतम ! दर्शन-सम्पदा से विपरीत दर्शन का अन्त होता है। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति यथार्थ द्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नही। वह अनुत्तर-ज्ञान धारा से आत्मा को भावित किए रहता है। यह आध्यात्मिक फल है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु-बन्ध नहीं करता ३७ ॥ महत्त्व ___ भगवान् महावीर का दर्शन गुण पर आश्रित था। उन्होने बाहरी सम्पदा के कारण किसी को महत्त्व नही दिया। परिवर्तित युग में जैन धर्म भी जात्याश्रित होने लगा। जाति-मद से मदोन्मत्त बने लोग समान धर्मी भाइ
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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