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________________ १२] जैन दर्शन में आचार मीमांसा और चरित्र की है। इस त्रयात्मक श्रेयोमार्ग (मोक्ष-मार्ग) की आराधना करने वाला ही सर्वाराधक या मोक्ष-गामी है । सम्यक् संप्रयोग ज्ञान, दर्शन और चरित्र का त्रिवेणी संगम प्राणीमात्र में होता है। पर उससे साध्य सिद्ध नहीं बनता। साध्य-सिद्धि के लिए केवल त्रिवेणी का संगम ही पर्याप्त नहीं है । पर्याप्ति (पूर्णता ) का दूसरा पण ( शर्त) है यथार्थता । ये तीनो यथार्थ ( तथाभूत ) और अयथार्थ ( अतथाभूत ) दोनो प्रकार के होते हैं। श्रेयस्-साधना की समग्रता अयथार्थ ज्ञान, दर्शन, चरित्र से नहीं होती। इसलिए इनके पीछे सम्यक शब्द और जोड़ा गया । सम्यग-ज्ञान, सम्यग्-दर्शन और सम्यग्-चरित्र-मोक्ष-मार्ग हैं । पौर्वापर्य साधना और पूर्णता ( स्वरूप-विकास के उत्कर्ष ) की दृष्टि से सम्यग्-दर्शन का स्थान पहला है, सम्यग्-ज्ञान का दूसरा और सम्यग्-चरित्र का तीसरा है । साधना-क्रम दर्शन के बिना ज्ञान, ज्ञान के बिना चरित्र, चरित्र के बिना कर्म-मोक्ष और कर्म-मोक्ष के विना निर्वाण नहीं होता । स्वरूप-विकास-क्रम सम्यग-दर्शन का पूर्ण विकास 'चतुर्थ गुण-स्थान' (आरोह क्रप की पहली भूमिका) में भी हो सकता है। अगर यहाँ न हो तो बारहवें गुणस्थान (आरोह क्रम की आठवी भूमिका-क्षीणमोह ) की प्राप्ति से पहले तो हो ही जाता है। ___ सम्यग् ज्ञान का पूर्ण विकास - तेरहवे और सम्यक् चरित्र का पूर्ण विकास चौदहवें गुणस्थान में होता है। ये तीनो पूर्ण होते हैं और साध्य मिल जाता है-आत्मा कर्ममुक्त हो परम-आत्मा बन जाता है। सम्यक्त्व एक चक्षुष्मान् वह होता है, जो रूप और संस्थान को शेय दृष्टि से देखता है। दूसरा चक्षुष्मान् वह होता है, जो वस्तु की ज्ञेय, हेय और उपादेय
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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