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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [१५१ अहिंसा का आधार-अपरिग्रह है। अपरिग्रह का आधार-संयम है। असंयम से संग्रह, संग्रह से हिंसा, हिंसा से भय, भय से असत्य, असत्य से संघर्ष, संघर्ष से अधिकार-हरण, अधिकार-हरण से अव्यवस्था, अव्यवस्था से अशान्ति होती है। विरोध का अर्थ विभिन्नता है किन्तु संघर्ष नहीं। १-सार्वभौम-दर्शन-अमुक दृष्टिकोण से यह यूं ही है-यह अस्तित्व __की नीति है५८ २-एकदेशीय या तटस्थ दृष्टिकोण-यह यूँ है-यह सापेक्ष नीति है५९ । ३-आग्रही दृष्टिकोण-यह यूँ ही है-यह निरपेक्ष नीति है । अपने या अपने प्रिय व्यक्तियों के लिए दूसरों के स्वत्व को हड़पने का यत्न करना पक्षपाती-नीति है। आक्रामक को सहयोग देना पक्षपाती-नीति है। दूसरों की प्रभुसत्ता में हस्तक्षेप करना पक्षपाती-नीति है। उनमें कुछ भी सामर्थ्य नहीं है (नास्तिसर्वत्र-वीर्यवाट ), यह एकान्तवाद है। __ हममें सब सामर्थ्य है-( अस्ति-सर्वत्र-वीर्यवाद ) यह एकान्तवाद है। दूसरों के 'स्वत्व' को अपना स्वत्व न बनाना संयम है। यही सहअस्तित्व का आधार । दूसरों के 'स्वत्व' पर अपना अधिकार करना असंयम या आक्रमण है-- पारस्परिक विरोध और ध्वंस का हेतु यही है । अपरिवर्तित सत्य की दृष्टि से परिवर्तन अवस्तु है, परिवर्तित-सत्य की दृष्टि से अपरिवर्तन अवस्तु है, यह अपनी-अपनी विपय-मर्यादा है किन्तु अपरिवर्तन और परिवर्तन दोनों निरपेक्ष नही हैं। अपरिवर्तन की दृष्टि से मूल्यांकन करते समय परिवर्तन गौण अवश्य होगा किन्तु उसे सर्वथा भूल ही नहीं जाना चाहिए। परिवर्तन की दृष्टि से मूल्यांकन करते समय अपरिवर्तन गौण अवश्य होगा किन्तु उसे सर्वथा भूल ही नहीं जाना चाहिए।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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