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________________ १५०] जैन दर्शन में आचार मीमांसा झुकाव होता है। वह सत्य पर आवरण डाल देता है। सत्ता शक्ति या अधिकार-विस्तार की भावना के पीछे यही तत्त्व सक्रिय होता है । स्वत्व की मर्यादा आन्तरिक क्षेत्र में व्यक्ति की अनुभूतियां व अन्तर का आलोक ही उसका स्व है। वाहरी सम्बन्धो में स्व की मर्यादा जटिल वनती है । दूसरो के स्वत्व या अधिकारों का हरण स्व नही—यह अस्पष्ट नही है । संघर्ष या अशान्ति का मूल दूसरो के स्व का अपहरण ही है। युग-भावना के साथ-साथ 'स्व' की मर्यादा वदलती भी है। उसे समझने वाला मर्यादित हो जाता है । वह संघर्ष की चिनगारी नही उछालता। रूढ़िपरक लोग 'स्व' की शाश्वत-स्थिति से चिपके बैठे रहते हैं । वे अशान्ति पैदा करते हैं। बाहरी सम्बन्धो में स्व की मर्यादा शाश्वत या स्थिर हो भी नहीं सकती। इसलिए भावना-परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं को बदलना भी जरूरी हो जाता है। बाहर से सिमट कर अधिकारो में अाना शान्ति का सर्व प्रधान सूत्र है। उसमें खतरा है ही नहीं। इस जन-जागरण के युग में उपनिवेशवाद, सामन्तवाद और एकाधिकारवाद मिटते जा रहे हैं। विचारशील व्यक्ति और राष्ट्र दूसरो के स्वत्व से वने अपने विशाल रूप को छोड़ अपने रूप में सिकुड़ते जा रहे हैं। यह सामञ्जस्य की रेखा है। ___ वर्ग-विग्रह और अन्तर्राष्ट्रीय विग्रह की समापन-रेखा भी यही है। इसीके अाधार पर कहा जा सकता है कि आज का विश्व व्यावहारिक समन्वय की दिशा में प्रगति कर रहा है। निष्कर्ष शान्ति का आधार-व्यवस्था है। व्यवस्था का आधार-सह-अस्तित्व है। सह-अस्तित्व का आधार-समन्वय है। समन्वय का आधार-सत्य है । सत्य का आधार-अभय है। अभय का आधार-अहिंसा है।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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