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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [१२५ से नामरूप, नामरूप के होने से छह आयतन, छह आयतनो के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के होने से भव, भव के होने से जन्म, जन्म के होने से बुढ़ापा, मरना, शोक, रोना-पीटना, दुःख, मानसिक चिन्ता तथा परेशानी होती है । इस प्रकार इस सारे के सारे दुःख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। भिक्षुओ! इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं। __ अविद्या के ही सम्पूर्ण विराग से, निरोध से संस्कारो का निरोध होता है । संस्कारो के निरोध से विज्ञान-निरोध, विज्ञान के निरोध से नामरूप निरोध, नामरूप के निरोध से छह आयतनो का निरोध, छह आयतनो के निरोध से स्पर्श का निरोध, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव-निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से बुढ़ापा, शोक, रोने-पीटने, दुःख मानसिक चिन्ता तथा परेशानी का निरोध होता है। इस प्रकार इस सारे के सारे दुःख-स्कन्ध का निरोध होता है। भगवान् महावीर ने जीव और अजीव का स्पष्ट व्याकरण किया। उनने • कहा-जीव शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी है। जीव चेतन है, शरीड़ जड़ है-इस दृष्टि से दोनो भिन्न भी हैं। संसारी जीव शरीर से वन्धा हुआ है, उसी के द्वारा अभिव्यक्त और प्रवृत्त होते हैं, इसलिए वे अभिन्न भी हैं। ___ आत्मा नही है, वह नित्य नही है, कर्त्ता नहीं है, भोक्ता नहीं है, मोक्ष नही हैं, मोक्ष का उपाय नही है—ये छह मिथ्या-दृष्टि के स्थान हैं४० । ___ आत्मा है, वह नित्य भी है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है-ये छह सम्यक्-दृष्टि के स्थान हैं४१ । जीव और अजीव-ये दो मूल तत्त्व हैं। यह विश्व का निरूपण है ४२ । -पुण्य, पाप और वन्ध-यह दुःख (संसार ) है४३ ! श्रास्रव दुःख (संसार ) का हेतु है। मोक्ष दुःख ( संसार) का निरोध है। संवर और निर्जरा दुःख निरोध ( मोक्ष ) के उपाय हैं।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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