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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [११३ हैं, उनकी एक वाक्यता दिखलाने के लिए आयु के भेद के अनुसार आश्रमो की व्यवस्था स्मृतिकारो ने की है।५। समाज व्यवस्था के विचार से “कर्म करो" यह आवश्यक है। मोक्षसाधना के विचार से "कर्म छोड़ो"--- यह आवश्यक है। पहली दृष्टि से गृहस्थाश्रम की महिमा गाई गई९६। दूसरी दृष्टि से संन्यास को सर्व-श्रेष्ठ कहा गया प्रव्रजेच्च परं स्थातुं पारिव्राज्यमनुत्तमम् ७---- दोनो स्थितियो को एक ही दृष्टि से देखने पर विरोध प्राता है। दोनो को भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाए तो दोनो का अपना-अपना क्षेत्र है, टक्कर की कोई बात ही नहीं । संन्यास-आश्रम के विरोध में जो वाक्य हैं, वे सम्भवतः उसकी ओर अधिक झुकाव होने के कारण लिख गए। संन्यास की ओर अधिक झुकाव होना समाज-व्यवस्था की दृष्टि से स्मृतिकारो को नही रुचा । इसलिए उन्होंने ऋण चुकाने के बाद ही संसार-त्याग का, संन्यास लेने का विधान किया। गृहस्थाश्रम का कर्तव्य पूरा किये बिना जो श्रमण बनता है, उसका जीवन थोथा और दुःखमय है—यह महाभारत की घोषणा भी उसी कोटि का प्रतिकारात्मक भाव है। किन्तु यह समाज-व्यवस्था का विरोध 'अन्तःकरण की भावना को रोक नही सका। श्रमण-परम्परा में श्रमण बनने का मानदण्ड यही-'संवेग' रहा है। जिन में वैराग्य का पूर्णोदय न हो, उनके लिए गृहवास है ही। वे घर में रहकर भी अपनी क्षमता के अनुसार मोक्ष की ओर आगे बढ़ सकते हैं। इस समग्र दृष्टिकोण से विचार किया जाए तथा आयु की दृष्टि से विचार किया जाए तो आश्रम-व्यवस्था का यांत्रिक स्वरूप हृदयंगम नही होता । आज के लिए तो ७५ वर्ष की आयु के बाद संन्यासी होना प्रायिक अपवाद ही हो सकता है, सामान्य विधि नहीं। अब रही कर्म की बात । खान-पान से लेकर कायिक, वाचिक और मानसिक सारी प्रवृत्तियाँ कर्म हैं। लोकमान्य के अनुसार जीना मरना भी कर्म है । गृहस्थ के लिए भी कुछ कर्म निषिध माने गए हैं। गृहस्थ के लिए विहित कर्म भी संन्यासी के लिए निषिद्ध माने गए हैं । संक्षेप में "सर्वारम्भ
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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