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________________ ३९ २. द्वितीय मिन्हव- तिष्य गुप्त-जीब प्रादेशिक सिद्धान्त : तिष्यगुप्त वसु का शिष्य था । एक समय ऋषभपुर में आत्मप्रवाद पर चर्चा चल रही थी । प्रश्न था - क्या जीब के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं। भगवान महावीर ने उत्तर दिया- नहीं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्रदेश युक्त होने पर ही 'जीव' कहा जायगा । तब तिष्यगुप्त ने कहा कि जिस प्रदेश के कारण वह जीव नहीं कहलायेगा उसी चरम प्रदेश को जीब क्यों नहीं कहा जाता ? यही उसका जीव प्रादेशिक मत है। एवंभूत नय न समझने के कारण ही उसने यह मत स्थापित किया । ३ तृतीय निन्हब-आषाढ आचार्य - अभ्यक्त वाद । श्वेताविका नगरी में आषा2 नामक एक आचार्य थे। वे अकस्मात् मरकर देव हुए और पुनः मृत शरीर में आकर उपदेश देने लगे । योग साधना समाप्त होने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा - " मैने असंयमी होते हुए भी आप लोगों से आज तक वन्दना कराई । श्रमणो ! मुझे क्षमा करना ।" इतना कहकर वे चले गये । तब शिष्य कहने लगे - कौन साधु वन्दनीय है, कौन नहीं, निर्णय करना सरल नहीं । अतः किसी की भी वन्दना नहीं करनी चाहिए । व्यवहार नय को न समझने के कारण यह निन्हव पैदा हुआ । '४ चतुर्थ मिन्हव-कोण्डिण्य - समुच्छेदकवाद : कौण्डिण्य का शिष्य अश्वमित्र मिथिला नगरी में अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन कर रहा था । उसमें एक स्थान पर प्रसंग आया कि वर्तमान कालीन नारक विच्छिन्न हो जायेंगे । अतः उसके मन में आया कि उत्पन्न होते ही जब जीव नष्ट हो जाता है तो कर्म का फल कब भोगता है ? यह क्षण भंगवाद पर्यायनय को न समझने के कारण उत्पन्न हुआ । इसे समुच्छेदक नाम दिया गया है । इसका अर्थ है- पदार्थ का जन्म होते ही उसका अत्यन्त विनाश हो जाता है । " ५. पंचम निन्हव-गंग-द्विक्रिया वाद : धन गुप्त का शिष्य गंग एक बार शरद ऋतु में ऋतुकातीर नामक नगर से आचार्य की वन्दना करने के लिए निकला । मार्ग में उसने गर्मी १. बही गाथा- २३३३-३२५५. २. वही गाया - ३५६-३३८८. ३. वही गाया - ३८९-४३३३.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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