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________________ ३८ बुद्ध के सिद्धान्तों को स्वीकार कर लें । आगे वहां बताया गया है कि उन्होंने अन्तिम समय में एक शिष्य को शाश्वतवाद की शिक्षा दी और दूसरे को उच्छेदवाद की । फलतः वे दोनों परस्पर संघर्ष करने लगे । संघ भेद का मूल कारण यही है। उक्त उद्धरण कहाँ तक सही है, कहा नहीं जा सकता पर यह अवश्य है कि शासन भेद निगण्ठनातपुत्त के परिनिर्वाण के बाद किसी न किसी अंश में प्रारम्भ हो गया था। वैसे इस उदरण में अनेकान्तवाद की ओर संकेत किया गया है। निन्हव और दिगम्बर सम्प्रदाय को उत्पत्ति इस शासन भेद को श्वेताम्बर परम्परा में 'निन्हव ' कहा गया है। उनकी संख्या सात बतायी गयी है ।- जामालि तिष्यगुप्त, आषाढ, विश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल । निन्हव का तात्पर्य है- किसी विशेष दृष्टि कोण से आगमिक परम्परा से विपरीत अर्थ प्रस्तुत करनेवाला'। यह यहां दृष्टव्य है कि प्रत्येक निन्हव जैनागमिक परम्परा के किसी एक पक्ष को अस्वीकार करता है और शेष पक्षों को स्वीकार करता है । अतः वह जैन धर्म के अन्तर्गत अपना एक पृथक् मत स्थापित करता है । ये सातों निन्हव संक्षेपतः इस प्रकार हैं १. प्रथम निन्हव-जामालि-बहुरत सिवान्त: जामालि भ. महावीर का शिष्य था । श्रावस्ती में उसने अपने शिष्य से एक बार विस्तर लगाने के लिए कहा । शिष्य ने कहा-विस्तर लग गये । जामालि ने जाकर जब देखा कि अभी बिस्तर लग रहा है तो उसे महावीर का कहा हुमा "किययाणं कयं" (किया जानेवाला कर दिया गया) वचन असत्य प्रतीत हुमा । तब उसने उस सिद्धान्त के स्थान पर बहुरत' सिद्धान्त की स्थापना की जिसका तात्पर्य है कि कोई भी क्रिया एक समय में न होकर बनेक समय में होती है । मदानयन आदि से घट का प्रारम्म होता है पर घट तो अन्त में ही दिखाई देता है । यह ऋजुसूत्र नय का विषय है जिसे जामालि नहीं समझ सका।। १. बकपा, मा-३, पृ. ९९६ २. विशेषावयक मष्य, गापा-२३०८-३२, ३. पणवातिक (१.१०.२) में शानका अप करनेवाले को निहाहाबाद।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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