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________________ पर समाधिमरण पूर्वक देह त्याग किया। इस बाशय का छठी शती का एक लेख पुन्नाड के उत्तरी भाग में स्थित चन्द्रगिरि पहाड़ी पर उपलब्ध हुबा है। उसके सामने विन्ध्यगिरि पर चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोमटेश्वर बाहुबलि की ५७ फीट ऊंची एक भव्य मूर्ति स्थित है । परिशिष्टसर्वन् के अनुसार भद्रबाहु दुष्काल समाप्त होने के बाद दक्षिण से मगध वापिस हुए और पश्चात् महाप्राण ध्यान करने नेपाल चले गये । इसी बीच जैन साधु-संघ ने अनभ्यासवश विस्मृत श्रुत को किसी प्रकार से स्थूलभद्र के नेतृत्व में एकादश अगों का संकलन किया और अवशिष्ट द्वादशवें अंग दृष्टिवाद के संकलन के लिए नेपाल में अवस्थित भद्रबाहु के पास अपने कुछ शिष्यों को भेजा । उनमें स्थूलभद्र ही वहां कुछ समय रुक सके जिन्होंने उसका कुछ यथाशक्य अध्ययन कर पाया। फिर भी दृष्टिवाद का संकलन अवशिष्ट ही रह गया। ' देवसेन के "भाव संग्रह" में भद्रबाहु के स्थान पर शान्ति नामक किसी अन्य बाचार्य का उल्लेख है। भट्टारक रत्नकीर्ति (ई. १४००) ने संभवतः देवसेन और हरिषेण की कथाओं को सम्बद्ध करके भद्रबाहु चरित्र लिखा है । प्रथम भद्रबाहु का कोई भी अन्य प्रामाणिक तौर पर नहीं मिलता । छेद सूत्रों का कर्ता उन्हें अवश्य कहा गया है, पर यह कोई सुनिश्चित परम्परा नहीं। आचार्य कुन्दकुन्दने "बोहि पाहुड" में अपने गुरु का नाम भद्रबाहु लिखा है और उन भद्रबाहु को 'गमकगुह' कहा है । कुन्दकुन्द के ये गमकगुरु निश्चित ही श्रुतकेवली भद्रबाहु रहे होंगे । सद्दवियारो हूओ भासासुससु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६१॥ वारस अंग वियाणं चउदस पुव्वंग विउल वित्थरणं । सुयाणि मद्दबाहू गमयगुरु भयवो जयओ ॥६२।। बोहिपाहुड की इन दोनों गाथाओं से यह स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक भद्रबाह नाम के दो आचार्य हो चुके थे। - प्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहु जिन्हें कुन्दकुन्दने 'गमक गुरु' कहा है और द्वितीय भद्रबाहु जो कुन्दकुन्द के साक्षात् गुरु थे। ये दोनों व्यक्तित्व पृथक् पृथक हुए हैं अन्यथा कुन्दकुन्द दोनों गाथाओं में भद्रबाहु शब्द का प्रयोग नहीं करते। बाचारांग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्राप्ति, व्यवहार, कल्प, दशाभूतस्कन्ध, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक और ऋषिभाषित पन्धों पर किसी अन्य भद्रबाहु नामक विद्वान ने नियुक्तियां लिखी है, ऐसी एक पम्परा है। ये नियुक्तिकार तृतीय भद्रबाहु होना चाहिए जो छेवसूत्रकार भडवाहु (चतुर्व
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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