SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली इससे कुछ भिन्न है। उसमें उपर्युक्त लोहाचार्य तक का समय कुल ५६५ वर्ष बताया है । पश्चात् एकांगवारी बर्हद्वलि, माधनन्दि, परसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन पांच आचार्यों का काल क्रमशः २८, २१, १९, ३० और २० वर्ष निर्दिष्ट है। इस दृष्टि से पुष्पदन्त और भूतबलि का समय ६८३ वर्ष के ही अन्तर्गत आ जाता है। इस प्रकार षवला आदि ग्रन्थों में उल्लिखित और नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में उद्धृत इन दोनों परम्पराओं में आचार्यों की कालगणना में ११८ वर्ष (६८३ - ५६५ = ११८) का अन्तर दिखाई देता है । पर यह अन्तर एकादशांगषारी और आचार्यों में ही है, केवली, श्रुतकेवली और दशपूर्वधारी आचार्यों में नहीं । इसके वावजूद धवला आदि अन्यों की परम्परा अधिक मान्य है क्योंकि षट्खण्डागम की रचना महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद ही हुई। विद्वानोंने इन दोनों परम्पराओं में समन्वय करने का भी प्रयत्न किया है।' भाचार्य भद्रबाहु : आचार्य कालगणना की उक्त दोनों परम्पराओं को देखने से यह स्पष्ट है कि जम्बूस्वामी के बाद होने वाले युगप्रधान आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे आचार्य हुए हैं, जिनके व्यक्तित्व को दोनों परम्परागों ने एक स्वर में स्वीकार किया है। बीच में होनेवाले प्रभव,शय्यंभव, यशोभद्र और संभृतिविजय आचार्यों के विषय में परम्परायें एकमत नहीं। भद्रबाहु के विषय में भी जो मतभेद है वह बहुत अधिक नहीं। दिगम्बर परम्परा भद्रबाहु का कार्यकाल २९ वर्ष मानती है और उनका निर्वाण महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष बाद स्वीकार करती है पर श्वेताम्बर परम्परानुसार यह समय १७० वर्ष बाद बताया जाता है और उनका कार्यकाल कुल चौदह वर्ष माना जाता है। जो भी हो, दोनों परम्पराओं के बीच आठ वर्ष का अन्तराल कोई बहुत अधिक नहीं है। परम्परानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तज्ञानी थे । उनके ही समय संघभेद प्रारंभ हुमा है । अपने निमित्तज्ञान के बलपर उत्तर में होने वाले द्वादश वर्षीय दुष्काल का आगमन जानकार भद्रबाहु ने बारह हजार मुनि- संघ के साथ दक्षिण की बोर प्रस्थान किया । चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे । अपना अन्त निकट जानकर उन्होंने संघ को चोल, पाण्ड्य प्रदेशों की बोर जाने का आदेश दिया गौर स्वयं श्रवणवेलगोल में ही कालवप्र नामक पहाड़ी १. पवला, बाक्पुिराण तथा श्रुतावतार मावि मन्त्रों में भी लोहाचार्य तक के बापायों का काल ६८३ पर्व ही दिया गया है। २. जैनेन सिद्धान्त कोड, नाग, पृ. ३३२.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy