SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० मनत्यं परिवज्जेति, अत्यं गण्डाति पण्डितो। अत्याभिसमया धीरो पण्डितो ति पवुच्चति ।। स्याद्वाद, नयवाद और निक्षेपवाद की प्रणालियां भी इसी प्रकार है जहाँ प्रश्नों का समाधान अनेक प्रकार से मिल जाता है। भगवती सूत्र, प्रश्नव्याकरण आदि जैनागमों तथा उत्तरकालीन साहित्य में इस शैली का पर्याप्त उपयोग हुमा है। जैन संस्कृति की दृष्टि से शिक्षक अथवा गुरु वही है जो अहिंसादि महाव्रतों का पालन स्वयं करे और दूसरों को कराये।' उसे शास्त्रों का ज्ञाता, लोकमर्यादा का पालक, तृष्णाजयी, प्रशमवान्, प्रश्नों को समझकर सही उत्तर देनेवाला, प्रश्नों के प्रति सहनशील, परमनोहारी, किसी की भी निन्दा करनेवाला, गुण निधान, स्पष्ट और हितमित प्रिय भाषी होना चाहिए। प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्राप्ताशः प्रतिमापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसमः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया यावर्मकथा गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ।। उपमा शैली का प्रयोग कथ्य विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए किया जाता था। भगवान् महावीर तथा महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायी शिष्यों ने इस शैली का पर्याप्त प्रयोग किया है। सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन आदि आगम ग्रन्थों में इस शैली के माध्यम से विषय का सुन्दर विवेचन उपलब्ध है। मिलिन्द के प्रश्नों का भी समाधान नागसेन ने प्रश्नों के माध्यम से ही किया है। उसमें 'ओपम्मकथा पञ्ह' नामक सप्तम अध्याय है जिसमें उपमाओं के माध्यम से ही मिलिन्द के प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। इससे विषय को हृदयङ्गम और कर्णप्रिय बनाया जाता है। खण्डन-मण्डन शैली का भी प्रारम्भ से ही प्रयोग होता रहा है। वादविवाद अथवा शास्त्रार्थ परम्परा इसी से सम्बद्ध है। इसे सुव्यवस्थित करने के लिए अनेक अन्यों की भी रचना हुई है। १. महाव्रतपराः धीराः मनमानोपजीविनः । सामायिकस्याः धर्मोपदेशका गुरवो मताः । भगवान् महावीरः बाधुनिक संदर्भ में, पृ.७४ मानसार, ५. प्रवचनसार (२१. गापा) में, माध्यात्मिक गुरु को निर्यापकाचार्य भी कहा गया है। २. मिलिन्पम्हो बहिरकबा, गावा, ३-४
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy