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________________ ३९८ ४. शुश्रूषा (१.१४६) ५. श्रवण-पाठ श्रवण के प्रति सतर्कता एवं जागरूकता (१.१४६) ६. ग्रहण- पाठग्रहण की अर्हता (१.१४६) ७. धारण-पठित विषय का स्मरण करना (१.१४६) ८. स्मृति- स्मरण शक्ति (१.१४६) ९. अपोह- अकरणीय का त्याग (१.१४६) . १०. ऊह- तर्कणाशक्ति ११. निर्णीति- सयुक्तिक विचार करने की क्षमता (१.१४६) १२. संयम (३८.१०९-१३८) १३. प्रमाद का अभाव (३८.१०९-१३८) १४. सहज प्रतिभा (३८.१०९-१३८) १५. अध्यवसाय (३८.१०९-१३८) शिक्षार्थी के ये सभी गुण उसकी समग्र सफलता को संनिहित किये हुए है । ऐहिक और पारलौकिक सुखसाधना की दृष्टि से इन गुणों को सर्वोपरि कहा जा सकता है। इनसे विरहित शिक्षार्थी सही शिक्षार्थी नहीं हो सकता। सूत्रकृतांग के चौदहवें अध्ययन में शिष्य के दो भेदों का उल्लेख है-शिक्षाशिष्य और दीक्षाशिष्य । यहाँ दोनों के सम्बन्धों के विषय में कुछ निर्देश मिलते हैं। शिक्षक : शिक्षार्थी को योग्य और अनुकूल बनाना शिक्षक का महनीय गुण है। शिक्षक का आदर्श जीवन विद्यार्थी के लिए प्रेरणा पुञ्ज रहा करता है। इसलिए अनुकूल अनुशासन और स्वच्छ वातावरण के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक सदैव शिक्षार्थी बना रहे और शिक्षार्थी को शिक्षित करने की साधना करता रहे। वह शिष्य को पुत्रवत् माने और हमेशा उसके लाभ की दृष्टि रखे। जो भी उपदेश दे, वह कर्मनाशक कल्याणकारण, आत्मशान्ति तथा आत्मशुद्धि करनेवाला हो।' १. उत्तराध्ययन, १.२७
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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