SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ पाहावास की शैली में ईटों का प्रयोग अधिक दिखाई देता है। उनकी मंदिरनिर्माण शैली पर राजस्थान, मध्यमारत गौर बिहार की शैलियों का प्रभाव पा। इस युग के अनेक जैन मंदिर हरिद्वार आदि स्थानों पर मिलते हैं। मारुगुजर शैली में बना पानेराव का महावीर मन्दिर भी उल्लेखनीय है जो लगभग दशवीं शताब्दी का है। चाहमान युग का प्रतिनिधित्व करने वाला ओसिया मंदिर समह अनेक सदियों की कलात्मकता को समाहित किये हुए है। देवकुलिकाओं का निर्माण ८वीं शताब्दी के बाद ही प्रारंभ हया। यहां उन्हे १२ वीं शताब्दी में सम्मिलित किया गया पैसा कि बिजोलिया के शिलालेख से ज्ञात होता है। फलोधी में भी इस काल की शैली के जैन मंदिर मिलते है। उत्तर भारत की जैन कला पर १२ वीं शताब्दी के आसपास मुस्लिम बाक्रमणों का तांता लगा रहा फलतः बहुत से जैन मंदिर या तो नष्ट कर दिये गये यापरिवर्तित कर दिये गये। अजमेर की मस्जिद अढाई दिन झोंपडा, आमेर के तीन शिव मंदिर, सांगानेर का सिपीजी का मंदिर, दिल्ली की कुब्बतुल इस्लाम मस्जिद आदि स्थान मूलतः जैन मंदिर रहे है। ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास सर्वतोभद्र प्रतिमायें (चतुर्मुख प्रतिमा) अधिक निर्मित हुई इनमें ऋषभनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर का अंकन होता है। सरस्वती का यह मत सही हो सकता है कि चार प्रवेश द्वारों वाला वर्गाकार का मंदिर बनाया जाता रहा होगा। पहले इस प्रकार के मंदिरों में अलंकरण नहीं होता था पर उत्तरकाल में उसे अलंकृत किया जाने लगा। बौदहवीं शताब्दी से जन जीवन आक्रान्तमय होने लगा। अतः उत्तरभारत में नये मन्दिरों का निर्माण प्रायः बन्द रहा। जो भी निर्माण हुआ, उनमें कुछ मन्दिर तो ऐसे रहे जिनमें परम्परागत शैलियों को कुछ परिवर्तन के साथ अपनाया गया, जैसे चित्तोड गढ, नागदा, जैसलमेर आदि और कुछ ऐसे मन्दिरों का निर्माण हुआ जो मुगल शैली के प्रभाव से न बच सके। मुगल स्थापत्य कला का प्रभाव लगभग सोलहवीं शताब्दी से आया। इस प्रभाव को हम जैन मन्दिरों के दांतेदार तोरणों, अरबशैली के अलंकरणों और शाहजहाँके स्तम्भों में देख सकते हैं । वाराणसी, अयोध्या, श्रावस्ती, सिंहपुर, चन्द्रपुरी, कंपिला, हस्तिनापुर, सौरिपुर, कासाम्बी आदि स्थानों पर यथासमय जैन मंदिर बनते रहे हैं।' १ उत्तर भारत - श्री मुनीशचन गोशी व कृष्ण देव.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy