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________________ ३२९ यहीं किया जिसमें जैनागमों को लिपिबद्ध करने की योजना बनाई गई थी । यहीं देवधगणि क्षमाश्रमण ने लगभग पंचम शताब्दी में इसी उद्देश्य से एक और संगीति बुलाई । सप्तम शताब्दी में जिनभद्र क्षमाश्रमण एक प्रसिद्ध आचार्य हुए है जिनका संबन्ध शीलादित्य से रहा है। जूनागढ के समीप बाबा प्यारामठ में कुछ जैन प्रतीक भी मिले है । राष्ट्रकूल काल में भी जैनधर्म यहाँ अच्छी स्थिति में रहा। लगभग ९ वीं शती में सुवर्णवर्ष नामक जैन राजा हुआ। इसी समय यहाँ नवसारिका नामक एक जैन विद्यापीठ भी थी जिसके प्राचार्य परवादिमल्ल थे। बाद में चालुक्य वंश जैनधर्म का संरक्षक बना।' हेमचन्द्र जयसिंह के राजकवि थे जो नेमिनाथ के भक्त थे । केक्कल, वाग्भट्ट, गुणचन्द्र, महेन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि देवचन्द्र, उदयचन्द्र इत्यादि साहित्यकार भी जयसिंह के ही संरक्षण में रहे है । जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल हुए जिन्होंने जैनधर्म का और भी अधिक संरक्षण किया । परन्तु कुमारपाल के बाद अजयपाल ने जैन मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करने का काम अधिक किया । वस्तुपाल और तेजपाल ने उसका पुनः संरक्षण किया। ये दोनों वघेलों (सोलंकी शाखा) के मंत्री थे । उन्होंने आबू, गिरिनार और शत्रुञ्जय के प्रसिद्ध जैन मन्दिरों का निर्माण कराया । नादोल के चाहमान जैनधर्मानुयायी थे । उन्होंने भी अनेक जैन मन्दिर बनवाये । राजस्थान : राजस्थान भी गुजरात के समान प्रारम्भ से ही जैनधर्म का गढ़ रहा है । बडली शिलालेख (वीर. नि. मं. ८४ ) की 'माझमिका' की पहचान चित्तोड़ की समीपवर्ती नगरी माध्यमिका से की जाती है जो महाबीर काल में श्रमण संस्कृति का केन्द्र रही है ।" मौर्यकाल में चन्द्रगुप्त, अशोक और सम्प्रति ने राजस्थान में जैन संस्कृति को संवारा और वही क्रम उतरकाल में भी चलता रहा । कालकाचार्य, सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्रसूरि आदि प्रसिद्ध जैनाचार्यों का कार्यक्षेत्र राजस्थान भी रहा है। राजपूत काल में प्रतिहार, चौहान, सोलंकी, परमार आदि वंशों के अनेक राजा जैनधर्मानुयायी रहे हैं । १. दुर्लभ राजा के उत्तराधिकारी भीम और कर्ण के समय वर्षमानसूरि बीर जिनेश्वरप्रसिद्ध आचार्य हुए है । सिद्धराज ने भी जैन धर्म का, विशेषतः श्वेताम्बर सम्प्रणय का संरक्षण किया है। कुमुदचन्द्र और देवचन्द्रसूरि का शास्त्रार्थ इसी के वक में हुआ था । २. नाहर - Jain Inscription, No. 402; भारतीय प्राचीन सिमाना, पु०६.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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