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________________ ३०७ के कारण हैं। भौतिक साधनों की प्राप्ति के लिए इन ध्यानों में कायोत्सर्ग किया जाता है। मिथ्यात्व, कषाय, दुरामय आदि विकारजन्य होने के कारण ये ध्यान असमीचीन हैं। आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन आदि अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र कार्य करने की क्षमता साधकों में होती है। परन्तु ऐहिकफलवाले ये ध्यान कुमार्ग और कुध्यान के अन्तर्गत आते हैं। ध्यान का माहात्म्य इन से अवश्य प्रगट होता है।' ३. धर्मध्यान-साधना के क्षेत्र में विशेषतः धर्मध्यान और शुक्लध्यान आते हैं। धर्मध्यान में उत्तम क्षमादि दश धर्मों का यथाविधि ध्यान किया जाता है। वह चार प्रकार का है-(१) आज्ञाविचय (२) अपायविचय, (३) विपाक विषय, और (४) संस्थान विचय । विचय का अर्थ है विवेक अथवा विचारणा। १. आशाविषय- आप्त के वचनों का श्रद्धान करके सूक्ष्म चिन्तनपूर्वक पदार्थों का निश्चय करना-कराना आज्ञाविचय है। इससे वीतरागता की प्राप्ति होती है। २. अपायविचय-जिनोक्त सन्मार्ग के अपाय का चिन्तन करना अथवा कुमार्ग में जानेवाले ये प्राणी सन्मार्ग कैसे प्राप्त करेंगे, इस पर विचार करना अपायविचय है। इससे राग-द्वेषादि की विनिवृत्ति होती है। ३. विपाकविषय - ज्ञानावरणादि कर्मों के फलानुभव का चिन्तन करना विपाकविचय है। और ४. संस्थान विधय-लोक, नदी आदि के स्वरूप पर विचार करना संस्थानविषय है। यह धर्मध्यान सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है और शुक्लध्यान के पूर्व होता है। आत्मकल्याण के क्षेत्र में इसका विशेष महत्त्व है। धर्मध्यान के चारों प्रकार ध्येय के विषय हैं जिनपर चित्त को एकाग्र किया जाता है।' ४. शुक्लध्यान : __जैसे मैल दूर हो जाने से वस्त्र निर्मल और सफेद हो जाता है उसी प्रकार शुक्लध्यान में आत्मपरिणति बिलकुल विशुद्ध और निर्मल हो जाती है। इसके चार भेद हैं -१. पृथक्त्व वितर्क, २. एकत्ववितर्क, ३. सूक्ष्मनियाप्रतिपाति, और ४. व्युपरतक्रियानिवति । १. भानाव, ४०-४ २. उपासकाध्ययन, ६५१-६५८.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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