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________________ ३०५ ४. रसपरित्याग- घी, दूध, दही, गुड, तेल, नमक आदि रसों का त्याग करना । इस व्रत से इन्द्रियाग्नि उद्दीप्त नही होती और ब्रह्मचर्यव्रत के पालन करने में सहायता होती है। ५. विविक्तराध्यासन-एकान्त स्थान में बैठना, सोना। इसी को प्रतिसंलीनता भी कहते हैं। ६. कायक्लेश-प्रतिमायोग धारण तप करना। (२) आभ्यन्तर तप आभ्यन्तर तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते । उनका सम्बन्ध अन्तः शुद्धि से विशेष रहता है । वे भी छह प्रकार के हैं १. प्रायश्चित्त-किये गये दोष या अपराधों पर दण्डरूप पश्चात्ताप करना प्रायश्चित्त है । इससे अपराधों का शोधन हुआ करता है। साधक नव प्रकार से शोधन करता है-(१) आलोचना (गुरू के समक्ष आत्मदोषों का सविनय निवेदन करना), (२) प्रतिक्रमण (कर्मजन्य अथवा प्रमादजन्य दोषों का “मिथ्या मे दुष्कृतम्" के रूप से प्रतिकार करना), (३) तदुभय (आलोचना अथवा प्रतिक्रमण से यथानुसार आत्मदोषों की शुद्धि करना) (४) विवेक (उपलब्ध आहारादि तथा उपकरणादि सामग्रीका ज्ञान हो जाने पर उसे छोड़ देना), (५) व्युत्सर्ग (काल का नियमकर कायोत्सर्ग करना), (६) तप (अनशन आदि तप करना), (७) छेद (दीक्षा का छेदन करना), (८) परिहार (कुछ समय तक संघ से निष्कासित कर देना), और (९) उपस्थापना (महाव्रतों का मूलोच्छेदकरके फिर दीक्षा देना)।' उत्तराध्ययन में पाराञ्चिक भेद का भी उल्लेख है जिसमें गम्भीरतम अपराधके लिए गम्भीरतम प्रायश्चित्त का विधान है। २. विनय- गुरू आदि के प्रति विनम्रताका व्यवहार करना । इसके चार भेद हैं-(१) ज्ञानविनय (ज्ञान ग्रहण, अभ्यास और स्मरण),)। (२) दर्शनविनय (जिनोपदेश में निःशंक होना), (३) चारित्र विनय (उपदेशके प्रति आदर प्रगट करना), और (४) उपचार विनय (आचार्य को वन्दना आदि करना)। उपचार विनय के ही अन्तर्गत अभ्युत्थान, आञ्जलिकरण, आसनदान, गुरूभक्ति, ओर भावसुश्रुषा विनय आते हैं। १. तत्त्वार्यसूत्र, ९.२२ २. उत्तराध्ययन, ३०-३१; व्यवहार विवरण (मलयगिरि कृत), पृ. १९
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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