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________________ ३०२ ७. माश्रव-कोका बाना माधव है। आश्रव के दोषों का विचार करना आश्रवानुप्रेक्षा है। पंचेन्द्रियों के विषयों में वशीभूत होकर यह जीव भनेक योनियों में परिभ्रमण करता है । ८. संवर-कर्मों के अभाव के कारणों को बन्द कर देना संवर है। यह आत्मनिग्रह से ही हो सकता है। ९. निर्जरा-वेदना के विपाक को निर्जरा कहते हैं। नवीन कर्मों का संचय न होना और पुराने कर्मों का नाश हो जाना मोक्ष का कारण है। निर्जरा से हीये दोनों कारण प्राप्त होते हैं। परीषह जप, तप आदि से निर्जरा होती है। इसके चिन्तन से चित्त निर्जराके लिए उद्योगी हो जाता है। १०. लोक- लोक के स्वरूप पर चिन्तन करना। ११. बोधिदुर्लग-अनन्त स्थावरों में त्रस पर्याय का पाना उसी प्रकार दुर्लभ है जिस प्रकार अनन्त धूलि से आपूर समुद्र में गिरे हुए हीरे के कण का पुनः मिल जाना। बस में भी मनुष्य पर्याय मिलना और फिर शील, विनय और आचार की परम्परा मिलना और भी दुर्लभ है। सुदुर्लभ धर्म को पाकर भी विषयसुख में समय बिताना भस्म के लिए चन्दन जलाने के समान है। इस प्रकार चिन्तन करना बोधिदुर्ल भावना है। इससे जीव अप्रमादी बना रहकर बोधि प्राप्त करता है तय स्वकल्याण में लगा रहता है। १२. धर्म- यथार्थ धर्म के स्वरूप पर चिन्तन करना और उसकी प्रापि कैसे की जाय, इसका बारबार विचार करना धर्म भावना है। जिनधर्म निःश्रेयर का कारण है। ऐसा विचार करने से धर्म के प्रति अनुराग बढ़ता है। इन अनुप्रेक्षाओं का विकास भी क्रमिक हुआ है। प्राचीनतम जैनागम् में इनका एक साथ वर्णन इस प्रकार का नहीं मिलता पर उत्तरकाल में व मिलने लगता है । आचार्य कुन्दकुन्द से यह परम्परा अधिक स्पष्ट होने लगती और तस्वार्थसूत्र तक आते-आते अनुप्रेक्षागों का स्वरूप स्थिर हो जाता है यपि उनका यह स्वरूप प्राचीन जैनागमों में वर्णित विवेचन पर आधारि रहा है पर उसकी सुव्यस्थित व्याख्या निश्चित ही उत्तर काल का विकासात्म रूम है। आचार्य कार्तिकेय ने तो कट्टिगेयाणुवेक्खा नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लि दिया है जिसमें समूचे जैनधर्म के स्वरूप को प्रतिष्ठित किया गया है। गौवध के पेरगाषा, भेरीगाथा तथा अन्य पिटक साहित्य में भी अनुप्रेक्षाबों । विषयसामग्री उपलब्ध होती है। उनकी तुलनात्मक समीक्षा किया जा अभी शेष है।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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