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________________ ३०१ पृथक् किया गया है। इन धर्मों में स्वगुण की प्राप्ति और परदोष की निवृत्ति की भावना की जाती है इसलिए वे संवर के कारण हैं। द्वादश अनुप्रेक्षायें : ___ अनुप्रेक्षा का तात्पर्य है- बारम्बार चिन्तन करना। चिन्तन करने के लिए भिक्षु और साधक के समक्ष ऐसे बारह विषय रखे गये हैं जिनपर उसे सदैव विचार करते रहना चाहिए। वैराग्य की स्थिरता के लिए इनपर चिन्तन करते रहना नितान्त आवश्यक है। १. अनित्य-संसार के पदार्थ अनित्य और क्षणभंगुर हैं। अतः उनके वियोग में दुःखी होना व्यर्थ है। ऐसा चिन्तन करना। २. अशरण-संसार के दुःखों से बचाने वाला कोई नहीं । मात्र वीतरागी द्वारा प्रोक्त धर्म ही शरण है। इस प्रकार का विचार करना। इससे सांसारिक 'भावों से ममत्व हट जाता है। ३. संसार- कर्मों के कारण जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करना संसार है। यह जीव अनन्तानन्त योनियों में परिभ्रमण करता हुआ कभी पिता होकर भाई, पुत्र या पौत्र होता है तो कभी माता होकर बहिन, पत्नी या पुत्री होती है। इस प्रकार का चिन्तन करते रहना। यह चिन्तन वैराग्य का कारण होता है। ४. एकत्व- मैं अकेला ही आता हूं, अकेला ही मरता हूँ । बन्धूजन श्मशान तक के ही साथी होते हैं। दुःख को बांटने वाला न कोई स्वजन है और न कोई परजन । धर्म ही एक शाश्वत साथी है। इस प्रकार चिन्तन करना । इस 'भावना से स्वजनों में राग और परजनों में द्वेष नहीं होता। ५. अन्यत्व- शरीर से अत्यन्त भिन्न रूप में अपने स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि रूप मुक्ति को अन्यत्व कहा गया है। इसकी प्राप्ति के लिए शरीर और आत्मा की भिन्नता पर चिन्तन करना। इससे शरीर में स्पृहा नहीं होती। ६. अशुचि-शरीर का आदिकारण वीर्य और रज हैं जो स्वयं अत्यन्त अपवित्र हैं। शरीर भी मल-मूत्र, रक्त पीप आदि का भण्डार है । इस प्रकार शरीर की अशुचिता पर चिन्तन करना। १. तत्त्वार्यसूत्र, ९.७; कट्टिगेयाणुवेक्वा भी देखिये।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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