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________________ २७४ (३) इत्वरिका अपरिग्रहीतागमन,(४)अनंगक्रीड़ा, और(५) कामतीवाभिनिवेश।' इन्हें प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। जहाँ कहीं थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य मिलता है । समन्तभद्र ने 'इत्वरिकागमन' को एक ही माना है और विटत्व को दूसरा। सोमदेव ने इनके स्थानपर परस्त्रीसंगम और रतिकतव्य का संयोजन किया है। परिग्रहपरिमाणाणवत : मूर्छा अर्थात् ममत्व भाव को परिग्रह कहा है।' धन-सम्पत्ति आदि को भी इसी में सम्मिलित कर दिया गया। समन्तभद्र ने दोनों का समन्वय कर परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का लक्षण किया है। कुन्दकुन्दने इसी को परिग्रहारम्भविरमण' संज्ञा दी है। इसमें धन धान्यादि बाह्य और राग-द्वेषादि आभ्यन्तर परिग्रहों से विरमण होने की बात कही है। यहाँ आवश्यक वस्तुओं के परिमाण करने की ओर संकेत है। ममत्व का जागरण वहीं होता है। अनावश्यक और असंभव वस्तु के परिमाण करने में व्रत का पूरी सीमा तक पालन नहीं हो पाता। उमास्वामी ने इस व्रत के पाँच अतीचार बतायें हैं- क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दास-दासी और कुप्य (कपास) आदि की मर्यादा का अतिलोभ के कारण उलंघन करना। समन्तभद्र ने इन के स्थानपर अतिबाह्य, अतिसंग्रह, अतिविस्मय, अतिलोभ और अतिभारबहन को अतिचार बताया। आशाधर के समय तक परिस्थितियों में कुछ और परिवर्तन हुआ। फलतः उन्होने कुछ भिन्न अतिचारों का उल्लेख किया-(१) अपने मकान और खेत के समीपवर्ती दूसरे के मकान और खेत को मिला लेना, (२) धन और धान्य को भविष्य में ग्रहण करने की दृष्टि से व्याना देकर दूसरे के घर मे रख देना, (३) परिणाम से अधिक सोना-चांदी बाद में वापिस होने के भाव से दूसरे के घर रख देना, (४) व्रतभंग के भय से दो वर्तनों को मिलाकर एक मानना, और (५) गाय आदि के गर्भवती होने से मर्यादा का उल्लंघन न मानना। ये अतिचार हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर आधारित है। १. तस्वार्षसूत्र, ७.२८; उपासकदशांग, ब. १. २. उपासकाध्ययन, ४१८. ३. तत्त्वार्षसूत्र, ७१७. ४. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६१. ५. तत्वार्षसूत्र, ७.२९, उपासकदशांग, म. १. ६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ६२. ७. सागारधर्मामृत, ४.६४.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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