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________________ २३५ है। यदि वस्तु को सर्वथा भाव रूप स्वीकार किया जाये तो एक वस्तु के सद्भाव में सम्पूर्ण वस्तुओं का सद्भाव माना जाना चाहिए। और यदि सर्वथा अभाव रूप माना जाये तो वस्तु को सर्वथा स्वभाव रहित माना जाना चाहिए । पर ऐसा मानना तथ्य संगत नहीं कहा जा सकता। ३. स्यादस्ति घटः स्यानास्ति च घट:-'कथञ्चित् घट है और कञ्चित् घट नहीं है' इस तृतीय भंग से घट को सर्वथा सत्-असत् रूप उभयात्मक स्थिति से दूर रखा गया है । यदि सर्वथा उभयात्मक माना जायगा तो सर्वथा सत् और सर्वथा असत् स्वरूप में परस्पर विरोध होने से दोनों स्थितियों के दोष उपस्थित हो जायेंगे। स्वसद्भाव और पर-अभाव के आधीन जीव का स्वरूप होने से वह उभयात्मक है । यदि जीव परसत्ता के अभाव की अपेक्षा न करे तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायेगा। इसी प्रकार पर सत्ता के अभाव की अपेक्षा होने पर भी स्वसत्ता का सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही नहीं हो सकेगा, जीव होने की तो बात ही दूर रही। अतः पर का अभाव भी स्वसत्ता सद्भाव से ही वस्तु का स्वरूप बन सकता है। इस भंग में वस्तु के स्वरूप का निर्णय स्व-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा किया जाता है। ४: स्याववक्तव्यो घट:-"घट का स्वरूप कथञ्चित् अवक्तव्य है" यह चतुर्थ भंग है। घट के अस्ति-नास्ति रूप उभय रूपों को एक साथ स्पष्ट करने के लिए कोई शब्द नहीं। अतः अवक्तव्य कह दिया गया है । परस्पर शब्द प्रतिबद्ध होने से, निर्गुणत्व का प्रसंग होने से तथा विवक्षित उभय धर्मों का प्रतिपादन न होने से वस्तु अवक्तव्य है। ५. स्यावस्ति घटश्चावक्तव्यश्च-"कथञ्चित् घट है और अवक्तव्य है" यह पंचम भंग है। प्रथम और चतुर्थ भंग को मिलाकर यह पंचम भंग बना है। इसमें प्रथम समय में घट स्वरूप की मुख्यता और द्वितीय समय में युगपदुभयविवक्षा होने पर घट स्यात् घट है और अवक्तव्य है। यह भंग तीन स्वरूपों से द्वयात्मक होता है। अनेक द्रव्य और अनेक पर्यायात्मक जीव के किसी द्रव्यार्थ विशेष या पर्षायार्थ विशेष की विवक्षा में एक आत्मा 'अस्ति' है, वही पूर्व विवक्षा तथा द्रव्य सामान्य और पर्याय सामान्य या दोनों की युगपदभेद विवक्षा में वचनों के अगोचर होकर अवक्तव्य हो जाता है। जैसेमात्मा द्रव्यत्व, जीवत्व या मनुष्यत्व रूप से 'अस्ति' है तथा द्रव्य-पर्याय सामान्य तथा तदभाव की युगपत् विवक्षा में अवक्तव्य है ।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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