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________________ २२६ का अर्थ सामान्य है और भेद का अर्थ विशेष । सामान्य के दो भेद हैं-ऊठतासामान्य और तिर्यक् सामान्य । ऊर्ध्वतासामान्य का संबंध एक द्रव्य से है जबकि तिर्यक् सामान्य सादृश्यमूलक विभिन्न द्रव्यों में मनुष्यत्व जैसी सामान्य की कल्पना से सम्बद्ध है । एक द्रव्य की पर्याय में होने वाली मंद - कल्पना पर्यायविशेष है और विभिन्न द्रव्यों में प्रतीत होने वाली भेद-कल्पना व्यतिरेक विशेष है । साधारणतः द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक को क्रमशः द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक तथा पारमार्थिक और व्यावहारिक शब्द दिये गये हैं । आध्यात्मिकक्षेत्र में ये ही नय, निश्चय नय और व्यवहार नय के नाम से विवेचित हैं । उपर्युक्त नयों को स्थूलत: सात भेदों में विभाजित किया गया है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय । १. नैगमनय : अर्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय कहलाता है ।" यहाँ सामान्य और विशेष दोनों का बोध होता है । आत्मा के अमूर्तत्व आदि गुणों का सामान्य अथवा मुख्य रूप से विवेचन करने पर उसके सुखादि धर्म विशेष अथवा गौण हो जाते हैं और सुखादि धर्म को सामान्य अथवा मुख्य रूप से कहने पर अमूर्तत्व आदि गुण विशेष अथवा गौण हो जाते हैं । गुण और कर्म में रहने वाला सत् सामान्य है और भिन्न गो-गजादि में गोत्व - गजस्व का मानना सामान्य है से उन्हें भिन्न बताना विशेष है । इसलिए द्रव्य सामान्य है द्रव्य, अभिन्न है । परस्पर । आकृति, गुण आदि और पर्याय विशेष है । लोकार्थ बोधकता और संकल्प ग्राहकता भी नंगमनय का कार्य है- जैसे प्रस्थ बनाने के लिए जंगल से लकड़ी काटने वाले व्यक्ति से कोई पूछे कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वह उत्तर देगा- प्रस्थ के लिए जा रहा हूँ । यह उसके उत्तर में संकल्प व्यक्त हो रहा है । इसीप्रकार भविष्य में होनेवाले राजकुमार को भी पहिले से ही राजा कह दिया जाता है । ये सभी व्यवहा मैगमनय के विषय हैं।' इसमें लोकरूति पर विशेष ध्यान दिया जाता है । धर्म-धर्मी को अत्यंत भिन्न मानना नैगमाभास है । इस दृष्टि से न्यायवैशेषिक और सांख्यदर्शन नंगमाभासी हैं क्योंकि वे दोनों में सर्वथा भेद मानां हैं। पर जैनदर्शन उनमें कथञ्चित् भेद मानता है । १. अर्थ संकल्पमात्रग्राही नैगमः, तत्वार्थराजवार्तिक. १.१२ 2, सर्वातिद्धि, १.११ स्वार्थ राजपातिक १.१३
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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