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________________ २२५ अनेकान्त दृष्टि में से ही नयवाद का उत्थान हुना। नयों में सभी एकान्तवादी दर्शनों का अन्तर्भाव हो जाता है । इस दृष्टि से दार्शनिकों के बीच समन्वयवादिता स्थापित होने लगी। इसी प्रकार अनेक दार्शनिक नित्य-अनित्य, सान्त-अनन्त, आदि विचारधाराओं से जूझते रहे। इस संघर्ष को दूर करने के लिए सप्तभंगीवाद का जन्म हुआ । जैन दार्शनिकों ने इस प्रकार अनेकान्तवाद, नयवाद के माध्यम से अन्य दर्शनों को समीप लाने का अभूतपूर्व प्रयत्न किया । २. नय वाद भय और प्रमाण : पदार्थ के स्वरूप का विवेचन दो प्रकार से किया जाता है-द्रव्य रूप से और पर्याय रूप से। द्रव्य रूप से विवेचन प्रमाण करता है और पर्याय रूप से नय । नय का अर्थ है "ज्ञाता का अभिप्राय" और अभिप्राय कहलाता है प्रमाण से गृहीत पदार्थ के एक देश में पदार्थ का निश्चय । नय बंशग्राही होता है और वह पदार्थ के एक देश में पदार्थ का व्याख्याता है। इसालए प्रमाण को सकलादेशी कहा गया है और नय को विकलादेशी कहा गया है। समस्त व्यवहार प्रायः नय के आधीन होते हैं। ये नय सुनय भी होते हैं और दुर्नय भी। सुनय वस्तु के अपेक्षित अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करने पर भी शेष बंशों का निराकरण नहीं करता, पर दुर्नय निराकरण करता है। सुनय सापेक्ष होता है और दुर्नय निरपेक्ष । निरपेक्ष नय मिथ्या होते है और सापेक्ष मय सम्यक् । ऐकान्तिक आग्रह से मुक्त होने के लिए नय प्रणाली आवश्यक है। नय और प्रमाण में उपर्युक्त भेद के साथ यह जानना भी आवश्यक है कि प्रमाण अंश और अंशी दोनों को प्रधान रूप से जानता है जबकि नय अंशों को प्रधान और अंशी को गौण रूप से अथवा अंशी को प्रधान और अंशों को गौण रूप से जानता है। प्रमाण अनेकान्त का ज्ञापक है और नय वस्तु के एकान्त को बताता है। प्रमाण वस्तु के विधि और निषेध दोनों रूपों को जानता है, परन्तु नय वस्तु के किसी एक रूप पर ही विचार करता है। नयके भेष: ___नय के भेद अनंत हो सकते हैं क्योंकि जितने ही शब्द है उतने ही नय है। फिर भी उन्हें समासतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैद्रव्यापिक और पर्यायाथिक । द्रव्याथिक मुख्य रूप से द्रव्य को ग्रहण करता है और पर्यायार्थिक पर्याय को । एक अभेदग्राही है तो दूसरा मेदग्राही । बभेद १. नयो नातुरभिप्रायः, मालाप पति, ९, प्रमेयकमलमातंग, प. ६७६ २. सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः, सर्वार्थसिडि, १.६.२० 1. निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु वेडर्षकत, बात मीमांसा, इकोक २०८ ४. बाबाया वयणपहा वावाया हॉति पपवाया, पति प्रकरण ३."
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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