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________________ १९९ साधना में उपयोगी सभी तत्वों का ज्ञान होना चाहिए, न कि त्रैकालिक समग्र भावों का साक्षात्कार उत्तरकाल में मोक्ष का सम्बन्ध धर्मश से हो गया और धर्मश का सम्बन्ध सर्वज्ञता से जोड़ दिया गया । चार्वाक् के लिए तो सर्वज्ञता से कोई सम्बन्ध ही नहीं था । मीमांसकों ने सर्वज्ञता की अपेक्षा धर्मज्ञता पर अपना विचार केन्द्रित किया । उनके अनुसार वेद अपौरुषेय है। उसे रागादि दोष युक्त पुरुष जान नहीं सकता । इसलिए वेद को पौरुषेय भी नहीं कहा जा सकता । अम्यवा उसमें प्रामाणिकता कैसे आयेगी ? कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण धर्मश अथवा सर्वश नहीं हो सकता । गृद्ध, शूकर, चींटी आदि की इन्द्रियाँ तेज हो सकती हैं फिर भी वे अपने नियत विषय को ही जान-देख सकते हैं । कोई कितना भी अभ्यास करे पर वह न अपने कंधे पर बैठ सकता है और न एक योजन ऊपर कूद सकता है। और फिर वेद अनादि है और सर्वज्ञ सादि है । अनादि वेद में सादि सर्वश का कथन कैसे हो सकता है ? वेदश हुए बिना न कोई धर्मज्ञ हो सकता है और न कोई सर्वज्ञ । इस प्रकार मीमांसकों ने धर्मश के साथ-साथ सर्वज्ञ का भी निषेध किया । न्याय-वैशेषिक दर्शन में सृष्टिकर्तृत्व के साथ सर्वशता को सम्बद्ध कर दिया गया । बौद्धधर्म में प्रारम्भ में तो बुद्ध ने अपने में सर्वज्ञता का निषेध किया पर बाद में उनमें उनके अनुयायियों ने सर्वशता की स्थापना और धर्मज्ञ के साथ सर्वज्ञता की प्रस्थापना की । जैनदर्शन ने लगभग प्रारम्भ से ही सर्वज्ञता की कल्पना की है और धर्मज्ञता को सर्वज्ञता के अन्तर्गत माना है । उसके सभी तीर्थंकर सर्वज्ञ कहे गये हैं । जैसा हम पीछे उल्लेख कर चुके हैं निगण्ठ नातपुत्त को पालि साहित्य में भी सर्वज्ञ कहा गया है । अतः सर्वशता एक तथ्य है जिसे सभी जैनाचायों ने स्वीकार किया है । वशता की सिद्धि : सर्वशता की सिद्धि में आत्मज्ञ होना अपेक्षित माना गया है । आत्मा में अनन्त द्रव्यों को जानने की शक्ति है । अतः जो आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है उसे सर्वज्ञता स्वतः आ जाती है । इसलिए प्राचीनतम आचारादि आगमों में तथा कुन्दकुन्द जैसे अध्यात्मनिष्ठ आचार्यों ने 'एन' रूप आत्मा को जाननेवाले में सर्वज्ञता की स्थापना कर दी । १. दर्शन और चिन्तन, पू. ५५६
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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