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________________ मिलती है। शेष शानों के सम्बन्ध में वहाँ कुछ भी नहीं कहा गया । परन्तु राजप्रश्नीय सूत्र में पांचों शानों का उल्लेख मिलता है। लगता है, यह प्राचीनतम जैन परम्परा रही होगी। उत्तरकाल में केवलज्ञान के दो भेद किये गये-भवस्थ केवलज्ञान और सिडकेवलज्ञान । सिडकेवलज्ञान के १५ भेद हैं- १. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीपंकरसिक, ४. अतीर्थकरसित, ५. स्वयंबुखसिख, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. दुबोधितसिख, ८. स्त्रीलिंगसिख ९. पुरुषलिंगसिड, १०. नपुंसकलिंगसिख, ११. स्वलिंगसित, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. हलिंगसिद्ध, १४. एकसिख, और १५. अनेकसिख केवलशान पर चार दृष्टियों से विचार किया गया है-द्रव्य, क्षेत्र, काल बौर भाव । संक्षेप में केवलशान समस्त पदार्थों के परिणामों एवं भावों को जानने वाला है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, और एक ही प्रकार दार्शनिक युग में केवलज्ञान पर और भी प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े हुए । उन सब पर जैन आचार्यों ने मन्थन किया और उनका समुचित समाधान किया। मात्मा ज्ञानस्वभावी है। कर्मों का आवरण हट जाने पर वह पदार्थों को स्वभावतः जानेगा ही। जो पदार्थ किसी शान के शेय है, वे किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं, यथा पर्वतीय अग्नि । ऐसे ही तर्कों से केवलज्ञान और सर्वशता की सिद्धि की गई। सर्वश का सम्बन्ध अतीन्द्रिय पदार्थो से रहता है और उसकी सिद्धि अनुमान से होती है। अतः उसे विवाद का विषय बन जाना स्वाभाविक था। प्रारम्भ में "जो एक को जानता है वह सब को जानता है, और जो सब को जानता है वह एकको जानता है जैसे कथनों का तात्पर्य यह रहा होगा कि जो ममत्व, प्रमाद अथवा कषाय को जानता है वह उसके क्रोधादि परिणामों और उसकी सभी पर्यायों को जानता है और जो क्रोधादि परिणामों और उनकी पर्यायों को जानता है वह उन सब पर्यायों के मूल और उनमें अनुगत एक ममत्व या बन्धन को जानता है। इसका वास्तविक अर्थ आध्यात्मिक १. एवं सुपएसी बम्हं समणाणं निग्गंधाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते-जहा आमिणिबोहियनाणे सुपनाणे मोहिगाणे मणयज्जवणाणे केवलणाणे-राजप्रश्नीयसूत्र, १६५ ।। २. यह सम्बदम्ब परिणाममावविष्णत्तिकारणमणेतं । सासयमपरिवाई, एकवि केवलं जाणं ॥ नन्दी, सू. २२, गा. ६६ ३.जो मेये यमः स्वासति प्रतिवन्यो। वाहपेऽग्निदाहको न स्वावसति प्रतिवन्धके । मष्टसहनी, पृ. ५०पर उद्धृत ४. भाचारांग, ३.४, प्रवचनसार प्रम।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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