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________________ का जब ज्ञान होता है तब सामान्य के रहते हुए भी वह भासित नहीं होता और जब सामान्य तत्त्व का दर्शन होता है तब विशेष रहते हुए भी वह प्रतीत नहीं होता। यह ज्ञान और दर्शन का कालभेद मनःपर्ययज्ञान तक है पर केवल मान में ये युगपत् हो जाते हैं । सिरसेन ने इसी सन्दर्भ में दोनों मतों में दोष बताते हुए दर्शन और शान में अभेववाद को स्थापना की है। बाद में ताकिक क्षेत्र में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति को युगपत् स्वीकार किया गया । भाचार्यों ने उसके पीछे यह तर्क दिया कि पदार्थ में सामान्य और विशेष ये दो गुण होते हैं। दर्शन का विषय सामान्य है और ज्ञान का विषय विशेष है । यहाँ ज्ञान और दर्शन पृथक् हो जाते है । सम्भवतः यही कारण है कि अभयदेवसूरि ने दोनों को प्रमाण रूप में स्वीकार किया है। ज्ञान आत्मा का गुण है और शेय पदार्थ समूह है। दोनों स्वतन्त्र द्रव्य हैं। उनकी उत्पत्ति एक दूसरे से नहीं होती। पदार्थ को जानने में ज्ञान का प्रयोग किया जाता है। पदार्थ-शान हमारी इन्द्रियों और मन के माध्यम से होता है। अतः शान-ज्ञेय का सम्बन्ध विषय-विषयीभाव का सम्बन्ध माना जाता है। जान अथवा प्रमाण का स्वरूप : ज्ञान का स्वरूप पदार्थ के सभी पक्षों को प्रकाशित करता है । यदि वह पदार्थ के सभी पक्षों को प्रकाशित नहीं करता तो वह सम्यग्ज्ञान नहीं कहला सकता। यह सम्यग्ज्ञान तबतक प्राप्त नहीं होता जब तक आत्मा में विशुद्ध अवस्था प्राप्त नहीं होती। उसकी प्राप्ति के लिए समस्त कर्मों का निजीर्ण होना आवश्यक है। तभी केवलज्ञान प्राप्त होता है। कुन्दकुन्द ने 'दिट्टी अप्पयासया थेव' कहकर ज्ञान को आत्मप्रकाशक बताया है। आत्मप्रकाशक होने पर दीपक के समान उसका पर-प्रकाशक होना स्वाभाविक है। अतः ज्ञान का स्वरूप 'स्वपरप्रकाशक' है। केवलशानी का ज्ञान इसी प्रकार का स्वपरप्रकाशक होता है। तभी वह समस्त पदार्थों को हस्तामलकवत् जानने में समर्थ होता है। ऐसे ही शाता-आप्त सर्वज्ञ के कथन को प्रामाणिक माना गया है।' १. सन्मतिप्रकरण, २.२२. नन्धिचूणि में केवलज्ञान बार केवलदर्शन के सम्बन्ध में तीन मतों का उल्लेख किया है- i) दोनों का योगपथ, ii) दोनों का क्रमिकल, और it) दोनों का बमेवत्व । कषाय पाहु (भाग १, पृ. ३५६-७) ने योगपच वाले मत को स्वीकार किया है। २. निवमसार, १० ३. रत्नकरम्बावकाचार,५
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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