SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .१७१ है जो अनादि-अनन्त हैं । उसका न कोई निर्माता है और न विध्वंसक । वह तो स्वयं परिवर्तनशील है। उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य उसमें स्वयं विद्यमान है। ___ जैन परम्परा में लोक (विश्व) को तीन भागों में विभाजित किया गया है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। उसकी कुल ऊँचाई चौदह रज्जु मानी जाती है। उसका आकार उसी प्रकार का है जिस प्रकार कमर पर दोनों हाथ रखकर पैर फैलाये पुरुष का आकार होता है। अधोलोक सात राजू प्रमाण नीचे है जिसमें क्रमशः सात नारकीय भूमियां अवस्थित हैं रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रमा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा । इन भूमियों के बीच काफी अन्तर है। यह पृथ्वी घनोदधि, धनवात और तनुवात वलय के आधार पर टिकी हुई है। मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। उनके बीच जम्बूद्वीप है जो लवण समुद्र से परिवेष्टित है। उसे पाली के आकार का माना गया है। जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र है-हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । उनका विभाजन करने वाले छह पर्वत है-हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी । गंगा, सिन्धु आदि चौदह नदियां हैं। इसके बाद जम्बूद्वीप से बड़ा धातकीखण्ड और पुष्कराध द्वीप हैं । पुष्कर द्वीप में मानुषोत्तर पर्वत है। मनुष्य यहीं तक पहुंच सकता है, आगे नहीं। जन्म-मरण भी यहीं होता है। इसी को अढाई द्वीप कहा जाता है। मेरु पर्वत से ऊपर ऊर्ध्वलोक है लिसमें सोलह स्वर्ग है-सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, और अच्युत । इनमें रहने वाले देव कल्पोपपन्न कहे जाते हैं । कल्पों के ऊपर अनु क्रम से ९ कल्पातीत विमान रहते हैं जिन्हें 'वेयक' कहा जाता है । उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच कल्पातीत विमान रहते हैं जिन्हें 'अनुत्तर' कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि के ऊपर ईषत्प्रलभार पृथ्वी है चिसे 'सिद्धशिला' कहा गया है। मुक्त आत्मायें अनन्त काल तक यहीं रहती हैं। इसके बाद अलोकाकाश प्रारम्भ हो जाता है । लोक का स्वरूप विस्तार से तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, तत्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में दृष्टव्य है । देवों के भी भेद-प्रभेदों का वर्णन वहाँ मिलता है । यहाँ हम जम्बूद्वीप का कुछ विशेष विवरण तथा तारामण्डल का परिभ्रमण निम्नोक्त प्रकार से समझ सकते हैं
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy