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________________ है। इन भावों की उत्पत्ति अथवाशांन की तरनमता निष्कारण नहीं होती। उसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। वह कारण कर्म ही है। वह कर्म भी बहेतुक नहीं होता अन्यथा उसका विनाश नहीं हो सकेगा। पर विनाश होता है और उसके फलस्वरूप मोक्ष होता है । अतः कर्म के विद्यमान रहने पर संसार और उसके विनष्ट हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होना सिद्ध होता है। कर्मवाद की विरोधी मान्यताओं-कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद यादि का भी कर्मवाद में अन्तर्भाव हो जाता है। ये सहकारी कारणों के रूप में कार्य करते हैं। समूचा पुद्गल द्रव्य जीव का अनेक प्रकार से उपकार करता है। सुखदुःख देना, गोदारिकादि शरीर की रचना करना, पंचेन्द्रियों का निर्माण करना, तत-वितत आदि शब्दों का बनाना, श्वास, निश्वास आदि की संरचना करना आदि कार्य पुद्गल के द्वारा ही होते हैं । कर्म निराकार होने पर भी पौद्गलिक हैं। उनका विपाक मूर्तिमान द्रव्य के सम्बन्ध से ही होता है। जैसे धान आदि द्रव्य जल, वायु, धूप आदि मूर्तिक पदार्थों के सम्बन्ध से पकते हैं अतः वे मूर्तिक है वैसे ही पैर में काट चुभने से असाता वेदनीय कर्म का विपाक होता है और मिष्टान्न भोजन मिलने पर साता वेदनीय कर्म का विपाक होता है। मन और वचन को भी पौगलिक माना गया है।' ग्रन्थों में कर्म की दश अवस्थाओं का वर्णन मिलता है१. बन्ध-कर्मों का आत्मा के साथ बंधना । २. उत्कर्षण-बद्ध कर्मों की कालमर्यादा और फलवृद्धि होना । ३. अपकर्षण-काल और फल में शुभ कर्मों के कारण न्यूनता होना । ४. सत्ता-कर्मबन्ध होने और फलोदय होने के बीच आत्मा में कर्म की सत्ता (अस्तित्व) होना। ५. उदय-कर्म का फलदान । ६. उदीरणा-समय से पूर्व कर्म को जल्दी उदय में ले आना। ७. संक्रमण-सजातीय कमों में संक्रमण होना । ८. उपशम-कर्मों को उदय में आने के लिए अक्षम बना देना। ९. निषत्ति-कर्मों का संक्रमण और उदय न हो सकना । १०. निकाचना-कर्मों का प्रगाढ़ बंधन । १. शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य, 1-1. २. कार्तिकेयानुका, गापा २०८-२०९.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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