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________________ १६३. ३. अनुभागबन्ध कहीं-कहीं इसे अनुभव बन्ध भी कहा गया है । इसके अन्तर्गत कर्मः पुद्गलों की फलदान शक्ति बतायी गई I इसी को विपाक कहा गया है ।' जब शुभ परिणामों की प्रकर्षता होती है तो शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट और अशुभ प्रकृतियों का निकृष्ट अनुभाग बन्ध होता है और जब अशुभ परिणामों' की प्रकर्षता होती है तब अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट और शुभ प्रकृतियों का निकृष्ट अनुभाग बन्ध होता है । ये कर्म प्रकृतियाँ दो प्रकार की होती हैं--घाती और अघाती । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार प्रकृतियां घाती कहलाती हैं क्योंकि इनसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य रूप चार मूल गुणों का घात होता है । शेष चार प्रकृतियाँ अघाती हैं क्योंकि ये किसी भी आत्मगुणों' का घात नहीं करतीं । घाती प्रकृतियों के भी दो भेद होते हैं--सर्वघाती और देशघाती । केवलज्ञानावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, केवलदर्शनावरण, बारह कषाय और दर्शनमोह ये बीस प्रकृतियाँ सर्वधाती हैं। शेष चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पांच अन्तराय, संज्वलन' और नव नोकषाय ये देशघाती प्रकृतियाँ । शेष प्रकृतियाँ अघाती हैं । घातिक कर्मों का अनुभाग क्रमश: लता, दारु (काष्ठ), अस्थि तथा शिला के समान चार प्रकार का है । अघाति कर्मों की अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग क्रमशः नीम, कांजीर, विष और हालाहाल के समान चार प्रकार का तथा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग गुड़, खांड, शर्करा एवं अमृत के समान चार प्रकार का है। ४. प्रदेशबन्ध प्रदेशबन्ध में कर्म रूप से परिणत पुद्गल स्कन्धों की गणना की जाती है । उनकी संख्या अनन्तानन्त है । वे पुद्गल स्कन्धः अभव्यों के अनन्तगुणों और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। वे कर्म योगक्रिया से आते हैं और आत्मप्रदेशों पर ठहर जाते हैं । कर्म दो प्रकारों में भी विभाजित किया गया है--शुभ और अशुभ, अथवा पुष्प और पाप । उमास्वामी ने इन्हें आश्रम के भेद के रूप में स्वीकार किया १. विपाकोsनुभवः, तत्वार्थसूत्र, ८.२१ 2. कर्म प्रकृति, पु. ४५-४६ ३. सूत्रकृतांग, २-५-१६ पञ्चास्तिकाय, २ - १९८०
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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