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________________ १६१ कर्मबन्ध चार प्रकार का भी कहा गया है- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगों से होते हैं । तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषायों से । जीव के योग और कषाय रूप, भावों का निमित्त पाकर जब कार्माण वर्गणायें कर्मरूप परिणत होती हैं तो उनमें चार बातें होती हैं स्वभाव, स्थिति, फलदानशक्ति और अमुक परिमाण में उसका जीव के साथ सम्बद्ध होना । इनको ही बन्ध कहते हैं । सभी जीवों के दसवें गुणस्थान तक ये चारों प्रकार के बन्ध होते हैं। का उदय न होने से स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता । स्थान में योग के भी न रहने से कोई बन्ध नहीं होता । आगे कषाय चौदहवें गुणक प्रकृतिबन्ध : कर्मों में ज्ञानादि गुणों को घातने का जो स्वभाव रहता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं । इसमें प्रत्येक कर्म की प्रकृति (स्वभाव) का वर्णन किया जाता है । ज्ञानावरण की प्रकृति है - अर्थ - ज्ञान नहीं होने देना । दर्शनावरण की प्रकृति अर्थ का दर्शन न होने देना, वेदनीय की प्रकृति सुख-दुःख संवेदन, मोहनीय में दर्शनमोहनीय की प्रकृति तत्त्वार्थ का अश्रद्धान और चारित्र मोहनीय की प्रकृति परिणामों में असंयमन, आयु की प्रकृति भवधारण, नाम की प्रकृति नाम व्यवहार कराना, गोत्र की प्रकृति ऊँच-नीच व्यवहार और अन्तरायकर्म की प्रकृति दानादि में विघ्न उपस्थित करना है । प्रकृतिबन्ध के दो भेद हैं- मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति । ज्ञानावरणादि के भेद से मूलप्रकृति आठ प्रकार की है और उत्तरप्रकृति ९७ प्रकार की । उत्तरप्रकृतिबन्ध के भेद इस प्रकार हैं १. ज्ञानावरणीय ५–मत्यावरण, श्रुतावरण, अवध्यावरण, मन:पर्ययावरण, और केवलज्ञानावरण २. दर्शनावरणीय ९ - चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण. अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला. प्रचला तथा स्त्यानगृद्धि । सातावेदनीय और असातावेदनीय ३. वेदनीय २ ४. मोहनीय २८ - मूलभेद दो हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यग्प्रकृति । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं-कषाय और नोकषाय । कषाय के १६.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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