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________________ पी मन में कुछ नियत बलर होते है फिर भी इसकी अचिन्त्य चापित एती. है। इसी वरह यचापि बात्मा शरीर परिमाण वाला है फिर भी पहलवान सेमपित्य शक्तिवाला है अतः शरीर से अन्यत्र उसका बस्तित्व प्रमाणित वाला और कर्म का अन्योन्यानुप्रवेश रूप बन्ध होता है अर्थात् मात्मा गौर कर्म के प्रदेश परस्पर मिल जाते हैं । स्वर्ण और कालिना के बन्ध को तरह यह बन्ध अनादि और सान्त होता है। अर्थात् जैसे स्वर्ण में बान से ही मैल मिला होता है और मल को बाद में दूर करके मुख कर लिया जाता है वैसे ही बीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी मान्त होता है। सेबग्नि का लक्षण स्वभावतः उष्णता है वैसे ही जीव बोर पुदमन कर्म का बन्द भी बनादि और स्वतः सिख है। वह किसने, कहाँ पर, कैसे किया, ये प्रश्न आकाश पुष्प के समान हैं। कर्म के दो भेद है-द्रव्यकर्म और भावकर्म । जीव से संबड पुदगल कर्म कोयकर्म (कार्माण शरीर) और उससे उत्पन्न होने वाले राग-देषादिक विकारी भावों को भावकर्म कहते हैं।' बन्य प्रकार से उसके माठ भेद भी किये जाते हैं-मानावरण, वर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, भायु, नाम, गोत्र, बार अन्तराय। इनसे जीव की वैमाविक दशा प्रगट होती है और इनके बाव में वह अपने भावों से ही स्वयं स्वाभाविक रूप परिणमन करती है। बत स्वाभाविकी और वैमाविकी ये पदार्थ की दो शक्तियां अवस्था भेद से ही है, तत्वतः नहीं। मियादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांच कारणों से कर्म का बन्ध होता है। बन्ध के तीन भेद हैं-द्रव्यबन्ध, भावबन्ध मोर उमयबन्द । जीव प्रदेश और कर्म परमाणुबों का परस्परवन्ध द्रव्यबन्ध कहलाता है। द्रव्यबन्ध के कारण राग-षादि रूप परिणाम मावबन्ध कहलाता है। व्यबंध बौर जीव की अशुद्ध परिणति, यह सब मिलकर उभयबन्ध कहलाता है। जन कर्मशास्त्र में कर्म की ग्यारह अवस्थानों का वर्णन मिलता है-बन्धन, सत्ता, उदय, उवीरिणा, उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उपचमन, निपत्ति, निकाचन बार बवाष । १. सासकाम्ययन, १०६-७. २. बी ११९-११२. ३. पम्यायायी, २-१५ ४. सपिसिकि, २-२५ बावनीनां . १२९-.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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