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________________ ii) जगत यदि कृत्रिम है तो कूपादि के रचयिता के समान जगत का रचयिता ईश्वर भी अल्पज्ञ और असर्वज्ञ सिद्ध होगा। असाधारण कर्ता की प्रतीति होती नहीं। समस्त कारकों का अपरिज्ञान होने पर भी सूत्रधार मकान बनाता है । ईश्वर भी वैसा ही होगा। iii) एक व्यक्ति समस्त कारकों का अधिष्ठाता हो नहीं सकता । एक कार्य को अनेक और अनेक को एक करते हैं । iv) पिशाचादि के समान ईश्वर अदृश्य है, यह ठीक नहीं । क्योंकि जाति तो अनेक व्यक्तियों में रहती है पर ईश्वर एक है। सत्ता मात्र से ईश्वर यदि कारण है तो कुम्भकार भी कारण हो सकता है। अशरीरी व्यक्ति सक्रिय और तदवस्थ नहीं हो सकता। v) ईश्वर की सष्टि यदि स्वभावतः रुचि से या कर्मवश होती है तो ईश्वर का स्वातन्त्र कहाँ रहेगा? उसकी आवश्यकता भी क्या ? वीतरागता उसकी कहाँ ? और फिर संसार का भी लोप हो जायगा। vi) स्वयंकृत कर्म का फल उसका विपाक हो जाने पर स्वयं ही मिल जाता है। उसे ईश्वर रूप प्रेरक चेतन की आवश्यकता नहीं रहती। कर्म जड़ है अवश्य पर चेतन के संयोग से उसमें फलदान की शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है । जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल यथासमय मिल जाता है। अतः ईश्वर को न तो जगत का सृष्टिकर्ता कहा जा सकता है और न कर्मफलप्रदाता । सृष्टि तो अणु-स्कन्धों के स्वाभाविक परिणमन से होती है। उसमें वेतन-अचेतन अथवा अन्य कारण जब कभी निमित्त अवश्य बन जाते है पर उनके संयोग-वियोग में ईश्वर जैसा कोई कारण नहीं हो सकता । अपनी कारण-सामग्री के संवलित हो जाने पर यह सब स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । आचार्य अकलंक, हरिभद्र, विद्यानंदि, प्रभाचन्द्र आदि दार्शनिकों ने इस विषय को बड़ी गंभीरता से प्रस्तुत किया है । पाश्चात्य वर्शन में सृष्टि विचार : पाश्चात्य दार्शनिकों में कुछ ईश्वरवादी हैं, कुछ अनीश्वरवादी हैं और कुछ विकासवादी हैं । प्लेटो ईश्वर को शिव प्रत्यय के रूप में, अरस्तु मादि संचालक के रूप में, स्टोइक्स भविष्य के रूप में, देकातें सभी बस्तयों के निर्माता के रूप में, स्पिनोजा सार्वभौम के रूप में, लेवनित्ज चिद्विन्दुसम्राट
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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