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________________ गतिमीले, प्रयोजनात्मक, नित्य, अमर, शाश्वत, स्वतन्त्र तथा निरन्तर व्य है। हमने किसी नित्य आत्मा को तो नहीं माना पर कान्ट ने उसके बस्तित्व को अवश्य स्वीकार किया है और उसे अमूर्त एकता (abstract unity) माना. है। लॉक और वर्कले ने भी आत्मा के इसी स्वरूप को स्वीकार किया है। ये सभी दार्शनिक जैन दर्शन के समीप बैठते हैं। हम, विलियम जेम्स बार डले ब्रात्मा को अनित्य और परिवर्तनशील मानते हैं। जैन दर्शन के समान बरस्तु के मत में भी आत्मा की वास्ताविक शक्ति के रूप में ज्ञान को स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन ने मात्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व माना है और उसके निस्यत्व मौर अनित्यत्व के संघर्ष में अनेकान्तवाद के भाषार पर विचार किया है। पार्शनिकों ने जो भी विचार रखे हैं उनका अन्तर्भाव प्रायः इन दोनों पहलुषों में हो जाता है। २. पुद्गल (अजीब) सरूम और पर्याय: पुद्गल, धर्म अधर्म, माकाश और काल ये पांच अन्य अजीब बपना बोवन है। ये पांचों द्रव्य एक साथ रहते हैं मोर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व पनाये रखते हैं । काल को छोड़कर सभी द्रव्य अस्तिकायिक है। पुद्गल और अजीव समानार्थक हैं । पुद्गल का वर्ष है पंगलनार् पूरनगलनावा पुद्गलः अर्थात् जो टूट सकें, विबर सके और बुरा सके वह पुनल' है। उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ग पाये जाते हैं और सभी के संपात म में वह दृश्य और स्पृय रहता है । सारी सृष्टि पुद्गलों के परिणमन का ही प्रतीक है। भगवतीसूत्र में पुद्गल का वर्ष 'महण' किया गया है-गहनत पोग्गलत्यिकाए । पोग्गलत्यिकाए गं जीवाणं बोरामिय-उचिवमाहारए तेयाकम्मए सोइंदिय-वक्विविय-वाणिदिय-जिग्मिविय-फासिविय-जगजीव-भवा पोग-कायजोग-आणापाणं च गहनं पवत्तति गहणलक्सने पोम्ममविकाए ।' पीप अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छवास रूप से पुनलों का ग्रहण करता है। यह ग्रहण-शक्ति जीव के साथ प्रतिबरहाने का प्रतीक है। पुक्ल के स्वरूप की यह प्रथम अवस्था है। १. भगवतीसून, १०८९ गुणको महवपूणे, २-१०-११ मान ला .... . . . . . . . .
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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